मंगलवार, सितंबर 21, 2010

राकेश साहनी कैसे हो गए बेदाग!


मामला 1770 करोड़ की बिजली खरीदी घोटाला



जबलपुर। प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव राकेश साहनी के कार्यकाल में बिना टेंडर के हुई 1770 करोड़ रुपए की बिजली खरीदी का मामला तब और जोर पकडऩे लगा है, जब श्री साहनी ने विद्युत मण्डल के चेयरमेन से इस्तीफा देकर मप्र विद्युत नियामक आयोग की आसंदी पर बैठने की जुगत जमा ली। हालाकि यह पूरा मामला लोकायुक्त के समक्ष विचाराधीन है और इसमें तीनों विद्युत वितरण व पावर टे्रडिंग कंपनियों की कार्यप्रणाली को ही जांच के दायरे में लिया गया है। वहीं प्रदेश में प्रशासनिक हल्कों के मुखिया होने के नाते राकेश साहनी की भूमिका का कहीं उल्लेख न होना और उन्हे इस प्रकरण में बेदाग रखने के मामले ने कई तरह के संदेहों को जन्म दे रखा है।

उल्लेखनीय है कि विद्युत मण्डल ने वर्ष 2005-08 के दौरान विद्युत की मांग के अनुरुप बिजली की उपलब्धता कम होने पर बिना टेंडर निकाले ही 1770 करोड़ रुपए की बिजली खरीद डाली थी, जिसमें बड़े पैमाने पर वित्तीय अनियमितता की शिकायतें सामने आईं थी। यह मामला तब सामने आया था जब विद्युत मण्डल ने म प्र विद्युत नियामक आयोग को इतने बड़े पैमाने में की गई बिजली खरीदी की सूचना एक पत्र के माध्यम से देकर इसकी स्वीकृति चाही। आयोग ने अविलंब इसे निरस्त करते हुए अपने विशेषाधिकार का प्रयोग किया और एक याचिका (सूमोटो पिटीशन) के माध्यम से बिना टेण्डर के खरीदी गई बिजली का जबाव मांगा। लेकिन विद्युत मण्डल की कंपनियां इस पर जबाव देने में अक्षम साबित हुईं।

उपभोक्ता मंच ने की थी शिकायत : बड़े पैमाने में नियमों का उल्लंघन कर की गई बिजली खरीदी के प्रकरण पर उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच के डॉ पी जी नाजपाण्डे ने मप्र विद्युत नियामक आयोग के आदेश को आधार बनाकर इसकी शिकायत लोकायुक्त को कर दी । लोकायुक्त ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए जबलपुर में ही इसकी सुनवाई नियत की। फिलहाल 16 अगस्त 2010 को इसकी पहली सुनवाई हो चुकी है। जबकि आगे की तिथियों में यह पूरी प्रक्रिया विचाराधीन रखी गई है।



सीएस व चेयरमैन रहे साहनी : जिस समयावधि में 1770 करोड़ रुपए की बिजली खरीदी हुई थी तब राकेश साहनी प्रदेश के मुख्य सचिव के साथ मप्रराविमं. के चेयरमैन भी रहे। लेकिन इस पूरे प्रकरण में तीनों विद्युत वितरण कंपनी और पावर टे्रडिंग कंपनी की कार्य प्रणाली को ही जांच के दायरे में लिया गया है।



बिग बॉस के बिना संभव नहीं खरीदी : प्रशासनिक हलकों से मिली जानकारी के अनुसार विद्युत मण्डल की ओर से इतने बड़े पैमाने में खरीदी गई बिजली का निर्णय केवल जबलपुर स्थित मुख्यालय शक्तिभवन में बैठे अधिकारी मिल कर नहीं ले सकते। ऐसा करना उनके लिए तब तक संभव नहीं जब तक प्रदेश का मुख्य अधिकारी इसकी इजाजत न दे या उसे सूचित न किया जाए। इन परिस्थितियों में बिजली खरीदी के मामले में साहनी की भूमिका को कहीं भी नहीं दर्शाया जाना कई तरह के सवालों को जन्म देता है।

शनिवार, सितंबर 11, 2010

मप्र विधानसभा के प्रमुख सचिव हो सकते हैं चार सौ बीसी में गिरफ्तार


भोपाल के दो थानों में शिकायत दर्ज

रवीन्द्र जैन

भोपाल। मप्र विधानसभा के प्रमुख सचिव आनंदकुमार पयासी के खिलाफ भोपाल के दो थानों में शिकायत दर्ज कर उनके खिलाफ धारा 420 के तहत प्रकरण दर्ज करने की मांग की गई है। भोपाल के दो सामाजिक कार्यकर्ता संजय नायक व धनराज सिंह ने जहांगीरबाद थाने में की गई शिकायत में पयासी पर कूटरचित दस्तावेतों के आधार पर नौकरी करने एवं बाग मुगालिया थाने में शिक्षा की फर्जी डिग्रियां हासिल करने का आरोप लगाया गया है। शिकायत पर कार्रवाई हुई तो एके पयासी कभी भी गिरफ्तार किए जा सकते हैं।

थाना बागमुगालिया में की गई शिकायत में आरोप लगाया है कि पयासी की पीएचडी की तीनों डिग्रियां फर्जी हैं। जबकि उन्होंने इन फर्जी डिग्रियों के आधार पर स्वयं को डा. एके पयासी लिखना शुरू किया और विधानसभा सचिवालय से दो वेतन वृद्धियां प्राप्त कर ली हैं। शिकायतकर्ताओं ने इसके कई प्रमाण संलग्र करते हुए दावा किया है, इससे संबंधित कुछ नस्तियां विश्वविद्यालय से गायब कर दी गईं हैं। पयासी की हायर सेकेन्ड्री की मार्कशीट को लेकर भी आज तक भ्रम की स्थिति बनी हुई है। उन्होंने बार बार मांगने पर भी अभी तक अपनी उक्त मार्कशीट सचिवालय को उपलब्ध नहीं कराई है। स्वयं स्पीकर पयासी को कई बार मार्कशीट उपलब्ध कराने के निर्देश दे चुके हैं, ताकि मार्कशीब्ट के आधर पर उनकी सेवा निवृत्ति की तिथि तय की जा सके, लेकिन पयासी ने उक्त मार्कशीट उपलब्ध नहीं कराई है। पयासी की एलएलबी की डिग्री को लेकर भी भ्रम की स्थिति है, क्योंकि उनकी एलएलनबी की उिग््राी के अनुसार उन्होंने 1971 से 1975 तक सतना के कॉलेज से नियमित छात्र के रुप में एलएलबी की पढ़ाई की, जबकि इसी अवधि में उनके द्वारा सीधी जिले सिंहावल के सरकारी स्कूल में शिक्षक रुप में भी नौकरी की है। सिंहावल व सताना में दो सौ किलोमीटर का अंतर है।

भोपाल के जहांगीराबाद थाने में की गई शिकायत में कहा गया है कि - पयासी का लगभग पूरा सेवाकाल कूटरचित दस्तावजों पर आधारित है। लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर विधानसभा में सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे पयासी ने अपने पद का दुरूपयोग करके अधिकांश स्थानों से रिकार्ड गायब करा दिया है। फिर भी सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त किए गई दस्तावजों से जाहिर होता है कि पयासी ने नगर पंचायत के सीएमओ के पद से रीवा नगर निगम में उपायुक्त का पद पाने के लिए कूटरचित दस्तावजों का सहारा लिया है। रीवा नगर निगम के जिस संकल्प के आधार पर उन्होंने अपनी सेवाएं नगर निगम में उपायुक्त के पद संविलियन कराईं वह संकल्प कूटरचित है, यह दस्तावेज लोक सेवा आयोग को दिया गया था। बाद में जब पयासी को पता चला कि संविलियन का अधिकार केवल राज्य सरकार को है तो उन्होंने एक और कूटरचित दस्तावेज तैयार कर लिया। नगर निगम रीवा ने इस फर्जी कार्रवाई को रद्द करने पीएससी को चार पत्र लिखे हैं, लेकिन शातिर दिगमा पयासी ने यह पत्र रीवा नगर निगम ही नहीं पहुंचने दिए। पयासी रायपुर व भोपाल नगर निगम में उपायुक्त रहे, लेकिन उनकी सांठगांठ की इससे ही अंदाज लगाया जा सकता है कि बिना सेवा पुस्कित प्राप्त किए पयासी इन नगर निगमों से मनचाहा वेतन प्राप्त करते रहे। बाद में उन्होंने अपना संविलियन विधानसभा में उप सचिव के रुप में कराया और अपने शातिर दिमाग से बिना किसी योग्यता के प्रमुख सचिव के पद तक पहुंच गए।

इनका कहना है :
जिले के दो थानों में पयासी के खिलाफ शिकायत प्राप्त हुई है। पुलिस इसकी जांच कर रही है। जांच के बाद नियमानुसार कार्रवाई की जाएगी।
                                             शैलेन्द्र श्रीवास्तव, आईजी भोपाल

शुक्रवार, सितंबर 10, 2010

मध्यप्रदेश में अंकल जजों को लेकर महाभारत

गुटों में बंटे वकील व जज

रवीन्द्र जैन

भोपाल। मप्र में पिछले तीन दिन से अंकल जजों को हटाने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। यदि मप्र बार कौंसिल की ग्वालियर शाखा की इस मांग पर कार्रवाई की गई तो देश भर में लगभग सौ हाईकोर्ट जजों को अपना बोरिया बिस्तर बांधना पड़ सकता है। दरअसल अंकल जज ऐसे जजों को नाम दिया गया है जो जिस कोर्ट में वर्षों वकालत करने के बाद उसी कोर्ट में जज बन जाते हैं। इन अदालतों में इन जजों के पुत्र, भाई व अन्य रिश्तेदार भी वकालत करते हैं। भारत के विधि आयोग ने देश के कानून मंत्री को सौंपी अपनी रिपोर्ट में ऐसे जजों को अंकल जज कहा है और इन्हें इन अदालतों से हटाने की सिफारिश भी की है।

आगे बढऩे से पहले भारत के विधि आयोग की 230 वीं रिपोर्ट पर नजर डाल लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एआर लक्ष्मनन की अध्यक्षता में तैयार यह रिपोर्ट 5 अगस्त 2009 को विधि मंत्री को सौंपी गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि - राज्यों के हाईकोटों में ऐसे जजों की नियुक्ति न की जाए जिन्होंने उसी कोर्ट में वर्षों तक वकालत की है और वर्तमान में उसी कोर्ट में उनके पुत्र व अन्य रिश्तेदार पे्रक्टिस कर रहे हैं। इनसे निष्पक्ष न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती। रिपोर्ट में कहा गया है कि - जहां वषो्रं तक काम करते हैं वहां मित्र व दुश्मन बनना स्वभाविक हैं। ऐसे में इन जजों को संबंधित कोर्ट से हटा देना चाहिए।

इस मुद्दे पर सबसे पहले मप्र हाईकोर्ट की ग्वालियर बैंच की बार एसोसिएशन ने पहल की और शुक्रवार को इसके अध्यक्ष प्रेमसिंह भदौरिया ने जबलपुर पहुंचकर मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रफत आलम से मुलाकत मप्र हाईकोर्ट के ऐसे नौ जजों को हटाने की मांग कर डाली। भदौरिया ने अपने इस ज्ञापन की प्रति राष्ट्रपति एवं देश के काननू मंत्री व सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजेत हुए विधि आयोग की रिपोर्ट को तत्काल लागू करने की मांग की है। भदौरिया ने अपने ज्ञापन में इन जजों के बारे में कई चौंकाने वाली जानकारियां भी दी हैं। उन्होंने ग्वालियर में पदस्थ हाईकोर्ट के एक जज के बारे में लिखा है कि - वे शाम को दफतर से फ्री होकर अपने पुत्र के उस कार्यालय में बैठते हैं, जो वह वकील के रुप में सुबह शाम अपने क्लाइंटों से मुलाकात करता है। भदौरिया ने अपने ज्ञापन में ज्ञापन में इन सभी नौ जजों के उन रिश्तेदारों के नामों को भी उल्लेख किया है, जो उसी कोर्ट में वकालत करते हैं और उन्हें प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से जज का रिश्तेदार होने का लाभ भी मिलता है। ,

खास बात यह है कि भदौरिया की इस मुहिम को पूरे प्रदेश में वकीलों एवं मीडिया का जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। पिछले तीन से जबलपुर, ग्वालियर एवं इंदौर हाईकोर्ट में इस मुद्दे पर जबरदस्त बहस छिड़ गई है। इस मुद्दे जजों व वकीलों के गुट भी बन गए हैंञ जो जज गृह नगर में पदस्थ नहीं हैं, वे न केवल इस मुहिम को समर्थन कर रहे हैं, बल्कि पर्दे के पीछे से इस मुहिम को हवा भी दे रहे हैं। वहीं दूसरी ओर इस मुहिम से जो जज प्रभावित हो सकते हैं, वे अपने समर्थक वकीलों के जरिए इस मुहिम को ठण्डा करने एवं मुहिम की हवा निकालने में लग गए हैं। सबकी नजर मप्र के मुख्य न्यायाधीश के निर्णय पर टिकी हुई है। ऐसा माना जा रहा है कि बेशक सभी जजों को एक साथ नहीं बदला जा सकता, लेकिन कुछ विवादस्पद जजों को कुछ दिनों में गृह नगर से हटाया जा सकता है।

अपनी मुहिम के पक्ष में भदौरिया का कहना है कि - पूरे प्रदेश के किसी भी थाने में पुलिस के एक अदने से आरक्षक को भी गृह नगर के थाने में इसलिए नहीं रखा जाता, क्योंकि गृहनगर में रहकर वह अपने कत्र्तव्य के साथ न्याय नहीं कर सकता। तो फिर यही नियम जजों पर लागू क्यों नहीं किया जा सकता?

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

मेडिकल कालेज के नाम पर घोटाला

-अस्पताल और कालेज निर्मित करने संस्था पर राशि नहीं

-बैंक से कर्जा लेने सरकारी भूमि को गिरमी रखने की तैयारी

सीताराम ठाकुर

भोपाल। यह मप्र के इतिहास में बड़े घोटाले के रुप में दर्ज किया जाएगा। भोपाल में जैन समाज के मेडीकल कॉलेज के नाम पर ली गई 25 एकड़ भूमि पर अब नेताओं और अफसरों की नजर लग गई है। दिगम्बर जैन संत आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के नाम बनने वाले इस मेडीकल कॉलेज से कथित स्वार्थी तत्वों ने जब आचार्यश्री का नाम हटा दिया तो जैन समाज इस कॉलेज से दूर हो गया। अब नेताओं व अफसरों ने सरकार ने एक रुपए में मिली भूमि को ही बैंक में गिरमी रखने की तैयारी कर ली है। अब यह कॉलेज सत्ता के गलियारों में प्रभावशाली अफसर और नेता के हाथ में पहुुंच गया है। बेशक मुख्यमंत्री के सचिव अनुराग जैन ने मेडीकल कॉलेज बनाने वाले ट्रस्ट से त्यागपत्र दे दिया है, लेकिन आज भी इस ट्रस्ट पर कब्जा उन्हीं का है।

भोपाल में जैन समाज का मेडीकल कॉलेज खोलने का सपना जैन संत आचार्यश्री विद्यागसार जी महाराज ने देखा था। भोपाल प्रवास के दौरान उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के सामने मेडीकल कॉलजे खोलने का प्रस्ताव रखा था। सिंह ने जैन समाज को निशुल्क भूमि देने का भरोसा दिलाया था। लेकिन सिंह अपने कार्यकाल में भूमि नहीं दे पाए। इसके बाद उमा भारती, बाबूलाल गौर के समय में भी भोपाल में जैन समाज को मेडीकल कॉलेज के भूमि देने की बात होती रही, लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में गांधी रोड़ पर राजीव गांधी प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय के पास 25 एकड़ भूमि मेडीकल कॉलेज के लिए जैन समाज के लिए आरक्षित की गई। राज्य सरकार ने मात्र 3 एकड़ भूमि का आवंटन जैन समाज को करते हुए शर्त रखी थी कि यदि एक वर्ष में तीन सौ बिस्तर का अस्पताल तैयार होगा, तभी शेष 23 एकड़ भूमि जैन समाज को दी जाएगी। लेकिन लगभग चार वर्ष व्यतीत होने पर भी अभी तक वहां अस्पताल बनना तो दूर उसका ढांचा भी तैयार नहीं हुआ है।

आचार्यश्री हुए दूर : इस संबंध में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि मेडीकल कॉलेज के लिए भूमि मिलते ही इस ट्रस्ट के कर्ताधर्ताओं ने सबसे पहले आचार्यश्री विद्यागसार मेडीकल कॉलेज का नाम बदलकर भगवान महावीर स्वामी मेडीकल कॉलेज कर दिया। इस निर्णय से ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति एनके जैन भी विचलित हुउए और उन्होंने ट्रस्ट के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। एक अन्य ट्रस्टी नरेन्द्र जैन वंदना ने भी स्वयं को ट्रस्ट से अलग कर लिया।

जमीन को गिरवी रखने की तैयारी : जैन समाज द्वारा हाथ खींचने के बाद जब मेडीकल कॉलेज के लिए चंदा नहीं मिला तरो ट्रस्टियों ने अनुराग जैन की मदद ली। जैन के प्रयास से राज्य सरकार ने नियमों को शिथिल करते हुए आदेश जारी किए कि जैन समाज के मेडीकल के लिए सभी विधायक अपनी निधि से पांच पांच लाख दान दे सकते हैं। लेकिन एक दर्जन विधायकों ने भी अपनी निधि से राशि नहीं दी तो ट्रस्टियों ने कॉलेज के पैसे एकत्रित करने नया फार्मूला निकाल है। राज्य सरकार की आरे से एक रुपए में मिली भूमि को ही बैंक में गिरमी रखकर ऋण लेने की तैयारी की गई है।

यह हैं ट्रस्टी : वर्तमान में मप्र के जल संसाधन मंत्री जयंत मलैया ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं, जबकि प्रमुख सचिव डीके सिंघई, आईजी पवन जैन, उपसचिव राजेश जैन, पूर्व पुलिस महानिदेशक आरके दिवाकर, पत्रकार सनत जैन, मनोहरलाल टोंग्या, डा. राजेश जैन आदि ट्रस्टी हैं। अनुराग जैन भी अभी तक ट्रस्टी थे, लेकिन बताते हैं कि उन्होंने पिछले दिनों त्यागपत्र दे दिया है, लेकिन अनुराग जैन के बिना ट्रस्ट में पत्ता भी नहीं हिलता।

आचार्यश्री का नाम हटना दुर्भाग्य पूर्ण

इस मेडिकल कालेज से आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज का नाम हटना दुर्भाग्य पूर्ण है। अब यह मेडिकल कालेज समाज का नहीं, बल्कि कुछ लोगों का ही रह गया है।

नरेन्द्र जैन वंदना

महामंत्री, ट्रस्टी

गुरुवार, मई 06, 2010

क्षिप्रा के सहारे लाखों के बारे न्यारे






मुख्यमंत्री ने क्षिप्रा के किनारे बने ईंट भट्टों पर रिपोर्ट माँगी
भोपाल। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उज्जैन कलेक्टर से मप्र की पवित्र नदी क्षिप्रा में फैलते प्रदूषण के संबंध में विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। राज्य सरकार इस संबंध में गंभीर कदम उठाने के बारे में विचार कर रही है। इसके अलावा मालवा माटी बोर्ड के अध्यक्ष अशोक प्रजापति की कुर्सी भी खतरे में दिखाई दे रही है। प्रजापति पर आरोप है कि वे क्षिप्रा के सहारे लाखों के बारे न्यारे पर रहे हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर उनके सचिव एवं खनिज निगम के प्रबंध संचालक एसके मिश्रा ने उज्जैन कलेक्टर से इस संबंध में तत्काल रिपोर्ट भेजने को कहा है।

उज्जैन शहर में सात किलोमीटर क्षेत्र में गरीब कुम्हारों के नाम पर मालवा माटी के अध्यक्ष अशोक प्रजापति ने क्षिप्रा नदी को पच्चीस से पचास फीट तक खोद डाला है। नदी के किनारों पर नियमों को घता बताते हुए लगभग पांच सौ से अधिक ईंट भट्टे बना दिए गए हैं। इनमें से कई भट्टे सरकारी जमीन पर बना लिए गए हैं। इन भट्टों को बेशक गरीबों के नाम से बनाया गया, लेकिन इसके असली मालिक अशोक प्रजापति और उनके परिजन हैं और प्रभावाशाली लोग हैं। गरीब कुम्हार तो इनके भट्टों पर मात्र पच्चीस रुपए सैकड़ा की दर से ईंटें बनाने का काम करते हैं। यह भट्टे प्रतिदिन मिट्टी क्षिप्रा नदी के किनारों से खोदते हैं और बिजली के खंबों से सीधी बिजली लेकर पम्प लगाकर नदी से पानी खींचकर गारा बनाकर उससे ईंट बनाने का काम कर रहे हैं। बताते हैं कि प्रतिदिन लाखों की संख्या में ईंट तैयार हो रही हैं। उज्जैन की ईंटों को उज्जैन के अलावा इंदौर व आसपास के जिलों में बेचने भेजा जाता है। ईंटों के कारोबार के कारण पवित्र क्षिप्रा नदी न केवल प्रदूषित हो रही है, बल्कि उसके किनारे खोद देने के कारण नदी कभी भी अपना वहाब बदल सकती है।

कोयले की राख से लाखों बनाए : भाजपा नेता और मालवा माटी बोर्ड के अध्यक्ष अशोक प्रजापति कायेले की राख से नोट छापने में लगे हुए हैं। दरअसल नागदा मिल से निकलने वाली कोयले की राख के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त निर्देश दिए हैं कि - इस राख को ईंट भट्टों तक पहुंचाकर देने की जिम्मेदारी मिलों की होगी। इसके अलावा जहां भी यह राख रखी जाएगी वहां कम से कम बीस फीट उऊंची दीवार बनाई जाए तथा राख के ऊपर निरंतर पानी छिड़काव किया जाए ताकि यह राख हवा में उड़कर पर्यावरण को प्रदूषित न कर सकें। कोयले की राख के कण यदि हवा के साथ मिलकर सांस के साथ किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाए तो उस व्यक्ति के फेफड़े खराब कर देते हैं। इसके अलावा यह राख के कण यदि पानी की सतह पर जम जाएं तो उस पानी पीने वाले को गंभीर रुप से बीमार कर देते हैं। अशोक प्रजापति ने इसी राख को अपनी कमाई का सबसे बड़ा जरिया बनाया हुआ है। नागदा से फ्री आने वाली उज्जैन शहर में नदी के किनारे बने ईंट भट्टों में छह से सात हजार रुपए प्रति ट्रक के हिसाब से प्रजापति एवं उनके परिजन बेचते हैं। क्षिप्रा नदी के किनारे सात किलोमीटर क्षेत्र में सभी ईंट भट्टों के पास यह राख फैली पड़ी है और हवा के साथ नदी की सतह पर जमकर नदी में ऑक्सीजन की कमी कर रही है जिससे नदी में पलने वाली मछलियां भी बिना मौत के मर रहीं हैं।

 
पुख्ता सबूत : उज्जैन के मास्टर प्लान में साफ लिखा है कि क्षिप्रा नदी के दो सौ मीटर क्षेत्र में केवल ग्रीन बेल्ट रहेगा जहां पेड पौधों के रोपण के अलावा कोई भी गतिविधि नहीं की जा सकती, लेकिन हमारे पास उज्जैन के तहसीलदार की वह रिपोर्ट मौजूद है, जो कहती है कि क्षिप्रा नदी के दसे सौ मीटर क्षेत्र में सैकड़ों ईंट भट्टे बने हुए हैं। इनमें कई भट्टे सरकारी जमीन पर बने हुए हैं। बताते हैं कि उज्जैन के सांसद सत्यनारायण जटिया के संरक्षण के कारण कोई भी व्यक्ति अशोक प्रजापति के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता।

हार के पीछे भी प्रजापति : उज्जैन में भाजपा के अधिकांश नेता मानते हैं कि इस बार सत्यनारायण जटिया की पराजय के पीछे भी अशोक प्रजापति का ही कथित आंतक जिम्मेदार है। नाम न छापने की शर्त पर एक भाजपा नेता ने बताया कि - अशोक प्रजापति का जटिया पर इतना प्रभाव है कि उसके सामने वे किसी की सुनने को तैयार नहीं है, जबकि सच्चाई यह है कि प्रजापति को उसकी ही समाज में पसंद नहीं किया जाता, क्योंकि वे नदी किनारे बने लगभग हर ईंट भट्टे संचालक को जिला प्रशासन की धमकी देकर वसूली करते हैं। पिछले दिनों उन्होंने हाईकोर्ट में ईंट भट्टों के खिलाफ जनहित याचिका को फेस करने के नाम पर उन्होंने लाखों रुपए वसूले हैं।

प्रजापति की कुर्सी छिनने का खतरा : अशोक प्रजापति ने जटिया के जरिए मालवा माटी बोर्ड की जो कुर्सी पाई थी उसके छिनने के आसार बन रहे हैं। अशोक प्रजापति के आतंक को चुपचाप सहने वाले गरीब कुम्हार भी उनके खिलाफ लामबंद होने लगे हैं, ऐसे में कुछ भाजपा नेताओं का मानना है कि मोहन यादव की तरह अशोक प्रजापति को भी उज्जैन नगर निगम एवं मंडी चुनाव से पहले हटाना पड़ सकता है।
फर्जी सालवेंसी पर पर्यटन में ठेकेदारी















रवीन्द्र जैन

भोपाल। एक ठेकेदार कूट रचित दस्तावजों के आधार पद सोलवेंसी तैयार कराकर मप्र पर्यटन विकास निगम में अपना पंजीयन कराता है, और पांच साल तक ठेकेदारी करता है। पोल खुलने पर पर्यटन निगम के अधिकारी पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने के बजाय केवल पंजीयन निरस्त करके उसे छोड़ देते हैं।

पर्यटन विकास निगम के वरिष्ठ लेखा अधिकारी पे 1 अप्रेल को आदेश जारी किया है कि - बताया है कि जितेन्द्र सिंह कंसाना का ठेकेदार के रुप में पर्यटन विकास निगम में अ-3 के रुप में 6 मई 2005 को पंजीयन किया गया था। इसके लिए उन्होंने अतिरिक्त कलेक्टर भोपाल द्वारा जारी रेवेन्यु सालवेंसी प्रस्तुत की थी। अपर कलेक्टर भोपाल ने दिनांक 3 मार्च 2010 को निगम को सूचित किया है कि - उक्त रेवेन्यु सालवेंसी कूट रचित होकर फर्जी थी। अत: पर्यटन निगम में जितेन्द्र सिंह कंसाना का पंजीयन निरस्त किया जाता है।

सलकनदेवी मंदिर में किया काम : फर्जी सोलवेंसी के आधार पर ठेकेदार जितेन्द्र सिंह कंसाना ने पिछले साल पर्यटन विकास निगम की ओर से सीहारे जिले के सलकनपुर देवी मंदिर की सीढिय़ों पर स्टोन फ्लोरिंग का काम किया था। निगम ने इस कार्य के लिए उसे 37 लाख 59 हजार 353 रुपए का भुगतान किया था। इसके अलावा भी उन्होंने निगम से कई ठेके प्राप्त किए थे।
भ्रष्ट कलेक्टरों को बचाने

सरकार जा रही है हाईकोर्ट

रवीन्द्र जैन

भोपाल। मध्यप्रदेश सरकार ने नरेगा की राशि के जिस दुरूपयोग के आरोप में अपने दो कलेक्टरों को निलंबित किया हुआ है, उसी आरोप में फंसे लगभग बीस अन्य कलेक्टरों को बचाने के लिए स्वयं सरकार ही हाईकोर्ट जाने की तैयार कर रही है। सरकार ने राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त पीपी तिवारी को पत्र लिखकर यह जानकारी दी है।

सामाजिक कार्यकर्ता अजय दुबे ने मप्र में सभी जिलों में नरेगा की राशि में हुए दुरूपयोग से संबंधित सभी फाइलें सूचना के अधिकार के तहत राज्य सरकार से मंागी थी। लेकिन सरकार ने यह फाइलें देने से इंकार कर दिया। दरअसल सरकार की दुविधा यह है कि नरेगा की राशि के जिस दुरूपयोग के आरोप में वह कलेक्टर केपी राही और अंजूसिंह बघेल को निलंबित कर चुकी है, वैसे ही आरोपों से राज्य के लगभग बीस कलेक्टर लपेटे में आ रहे हैं। यदि सरकार इस संबंध में किसी को भी अधिकृत जानकारी देती है तो उसे इन बीस कलेक्टरों के खिलाफ भी कार्यवाही करना पड़ सकती है, इससे पहले से मप्र में बदनाम आईएएस अफसरों के बारे में देश भर में गलत संदेश जाने का भय है। इधर जानकारी न मिलने पर दुबे ने पहले विभाग में अपील की, लेकिन वहां भी सुनवाई न होने पर उन्होंने मुख्य सूचना आयुक्त का दरवाजा खटखटाया।

फरवरी में मुख्य सूचना आयुक्त पीपी तिवारी ने निर्देश दिया कि - आवेदक को पन्द्रह दिन में उक्त जानकारी निशुल्क उपलब्ध कराई जाए। लेकिन सरकार ने फिर भी यह जानकारी नहीं दी तो तिवारी ने 8 अप्रेल को उक्त जानकारी आयोग के कार्यालय में तलब संबंधी आदेश जारी कर दिए। इस आदेश के जबाव में सरकार ने तिवारी को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि - राज्य सरकार आयोग के इस निर्णय के खिलाफ हाईकोर्ट जा रही है। इसलिए फिलहाल वे कार्यवाही स्थगित रखें। सरकार के इस निर्णय से सभी को आश्चर्य हो रहा है, क्योंकि पहले तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मप्र में नरेगा की राशि के दुरूपयोग को रोकने के लिए प्रदेश के दो कलेक्टरों को निलंबित करके उसका जमकर प्रचार प्रसार कराया। यह दोनों कलेक्टर प्रमोटी थे। लेकिन अब सरकार इसी आरोप मे फंसे सभी आईएएस अफसरों को बचाने के लिए एडी चोटी का जारे लगा रही है। वैसे इस आरोप में केवल आईएएस ही नहीं राज्य प्रशासनिक सेवा व अन्य सेवा के अधिकारियों पर भी गाज गिर सकती है जो जिला पंचायत सीईओ के रुप में काम पदस्थ थे।
'पशु नहीं 'अधिकारी संवर्धन विभाग











जब सिस्टम ही बेकार तो कैसे बहेगी दूध की धार

महेंद्र विश्वकर्मा

भोपाल। प्रदेश का पशु चिकित्सा विभाग अपने मूल उद्देश्य पशु संवर्धन और सरंक्षण को छोड़कर अपने अधिकारियों के संवर्धन और संरक्षण की दिशा में ज्यादा सक्रिय है। वर्तमान हालातों को देखकर यह कहना भी गलत नहीं होगा कि विभाग अब बुरे दौर से गुजर रहा है। दरअसल विभाग पशु डाक्टरों की कमी से पहले ही जूझ रहा है और ऐसे में सैकड़ों डाक्टर और अधिकारी अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते शहरी मुख्यालयों में डेरा जमाकर बैठ गए हैं। करीब एक सैकड़ा डाक्टर अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर मौज कर रहे हैं तो कुछ जनपद पंचायतों में सीईओ बनकर जमकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। मामले में खास यह कि इन राजनैतिक संरक्षण प्राप्त लोगों को वापस बुलाने में विभाग के डायरेक्टर और पीएस भी हाथ खड़े कर रहे हैं।

पशा चिकित्सा विभाग में कुल मिलाकर 10 हजार 857 अधिकारी और कर्मचारियों के स्वीकृत पदों में से 1550 पद रिक्त पड़े हैं, इनमें 1 हजार 281 पद पशु चिकित्सक और सहायक पशु चिकित्सकों के ही खाली हैं। बावजूद इसके करीब 100 पशु चिकित्सक, सहायक चिकित्सक अपनी राजनैतिक पहुंच के चलते अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर चले गए हैं। इसके अलावा 400 से ज्यादा अधिकारी, कर्मचारी अपने निजी हितों के लिए भोपाल, ग्वालियर, जबलुपर, इंदौर, रीवा, उज्जैन सहित शहरी मुख्यालयों पर सालों से डेरा जमाए बैठे हैं। अपनी-अपनी ढपली, अपना राग की तर्ज पर चल रहे पशु विभाग में प्रतिवर्ष आने वाले बजट का कागजों में गोलमाल करना और विभागीय प्रतिवेदन में गलत आंकड़े देना आम बात हो गई है।

डॉक्टर नहीं साहब कहलाना लगता है अच्छा

पशु चिकत्सा विभाग में भले ही डाक्टरों की कमी हो लेकिन इन डाक्टरों को शायद साहब कहलाना अच्छा लगता है। इसीलिए विभाग के डा. कमलेश पांडे पिछले 8 सालों से जबलपुर संभाग में जनपद सीईओ के पद पर कार्यरत हैं तो डा. एसएमपी शर्मा रोजगार गारंटी में डिवीजनल मैनेजर के पद पर डटे हुए हैं। ग्वालियर जिला पंचायत में डा. बिजय दुबे सालों से पीओ के पद पर जमें बैठे हैं। डा. दुबे द्वारा की जा रही गड़बडिय़ों की शिकायत कई बार होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई है। डा. एचएस जैदी बक्फ बोर्ड में अटैच हैं, डा. मिनेश मेश्राम और डा. शैलेष साकल्ले अजीविका ग्रामीण विकास विभाग में लंबे अर्से से कार्य कर रहे हैं। इनको भाजपा के बड़े नेताओं का आर्शीवाद प्राप्त है। डा. एसके तिवारी, बिजय दुबे, बीबी सिंह चौहान, पीके मिश्रा ग्रामीण विकास विभाग में परियोजना अधिकारी की कुर्सी संभालकर डटे हैं।

और भी हैं मामले

इधर डीपीआईपी, मध्यप्रदेश वाटर रिस्ट्रचचिंग परियोजना, ग्रमीण विकास विभाग, कुक्कुट विकास निगम, जैव विविधता भोपाल सहित अन्य विभागों में सालों से डेपुटेशन पर जमें पशु चिकित्सा विभाग के अधिकारियों में डा. जगदीश बाविस्टाले, मनीष श्रीवास्तव, डीपी सिंह, अजय रामटेके, वायपी सिंह, आशुतोष सिंह, आरके तिवारी, गगन सक्सेना, अविनाश कुमार गुप्ता, एके शर्मा, एसडी खरे, आनंद त्रिपाठी, एलएस कश्यप, पीके सिन्हा, केके सक्सेना, धर्मेंद सिंह बघेल, अरविंद भार्गव, बृजेश पटेल, नरेंद्र गुप्ता, आशीष सोनी, श्रवण पचौरी, एमके अहिरवार, एनएस रघुवंशी, सीताराम दुबे, एके खरे, राजीव जैन, शैलेंद्र सिसौदिया, सुनील गुप्ता, रजनीश द्विवेदी, एसपी पांडे, महेंद्र सिंह धावे, आरएम स्वामी, एसके मित्तल, उमेश चौरसिया, एलिजा बैथ, पल्लबी चौबे, सीएम शुक्ला, प्रज्ञा चौरसिया, वकुल लाड़, दिपाली देशपांडे, शशांक जुमड़े, मनोज गौतम, उमेश शर्मा, अखिलेश मिश्रा, अतुल गुप्ता, जितेंद्र जाटव, एसके गुप्ता और डा. एसके अग्रवाल सहित दो दर्जन अन्य नाम ऐसे भी शामिल हैं जिनके बारे में विभाग जानकारी उपलब्ध नहीं करा रहा है।



कैसे बढ़ेगा पशुधन और दूध उत्पादन

मप्र में प्रति व्यक्ति दूध उपलब्धता करीब 100 ग्राम है, जबकि प्रति व्यक्ति दूध की आवश्यकता 300 ग्राम प्रतिदिन है। डाक्टरों की कमी से कृतिम गर्भाधान, पशुधन प्रसार, बीमारियों पर अंकुश लगाने, पशु स्वास्थ्य रक्षा, दूरस्थ गावों में पशु चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने का कार्य प्रभावित होता है। ग्रामीण स्तर पर कार्यरत डाक्टरों का कहना है कि पशुधन की संख्या ग्रामीण परिवेश में ज्यादा होती है और इसका संवर्धन वहीं रहकर किया जा सकता है, लेकिन विभाग ग्रामीण स्तर पर कार्यरत डाक्टरों को सुविधाओं के नाम पर साल भर में 25 हजार की दवाओं के अलावा कुछ नहीं देता है। जो दवाएं खरींदी जातीं हैं वे भी मानक स्तर पर खरी नहीं होती, डाक्टरों को अपनी वेतन से गांव-गांव जाकर पशुओं का इलाज कराना पड़ रहा है। डाक्टरों के प्रतिनियुक्ति पर चले जाने से विभागीय योजनाओं के क्रियान्वयन में परेशानी होना लाजमी है। उनका मानना है कि जब पशुधन का विकास नहीं होगा तो दूध उत्पादन कैसे बढ़ेगा।

आंकड़ों में ही बढ़ते हैं दुधारू पशु

पशु विभाग के प्रतिवेदन में 18वीं पशु संगणना में गौ-वंशीय पशुओं की संख्या में 11.6 प्रतिशत और भैस वंशीय पशुओं की संख्या में 20.5 प्रतिशत और बकरी वंशीय पशुओं में 10.7 प्रतिशत की वृद्वि हुई है। प्रदेश में गायों के हाल किसी से छुपे नहीं हैं। सतना बार्डर से होते हुए गायों की तस्करी की जाकर उन्हें छत्तीसगढ़ ले जाया जाता है। आभार एनजीओ की रिपोर्ट को आधार माने तो वर्ष 2009 में बुंदेलखंड और इंदौर सर्किल में करीब 1 हजार 666 गायें अकाल मौत का शिकार हुईं लेकिन पशु विभाग के पास इनका कोई रिकार्ड नहीं है। एनीमल हसबेंडरी ऑफ इंडिया के अनुसार प्रतिवर्ष पशु मृत्युदर औसतन 15 प्रतिशत है। ऐसे में यदि पशु विभाग गायों की संख्या बढऩे की बात करे तो आश्चर्य ही होगा। भैस वंशीय पशुओं की संख्या बढऩे की जो दलील विभाग दे रहा है वह हकीकत से परे है। दरअसल किसान हरियाणा, पंजाब और अन्य प्रांतो से बेहतर नस्ल की भैंसें खरीदकर लाता है। इसमें पशु विभाग का कोई योगदान नहीं है। बकरे और बकरियों की संख्या में वर्ष 2001 की तुलना में वर्ष 2009 में करीब 10 प्रतिशत की कमी आई है।

यह पशु समाप्त होने की कगार पर

पशु विभाग के आंकड़े माने तो प्रदेश में खच्चर, गधे, ऊंट और घोड़े, घोडिय़ां और टट्टू, सूअर, खरगोश विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनके अलावा कुक्कुट की संख्या में 37 प्रतिशत की कमी आई है। जबकि कुक्कुट के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं।

बजट ही नहीं कर पाते खर्च

विभाग को मिलने वाला बजट भी पूरा खर्च नहीं किया जाता। वर्ष 2007-08 में पशु विभाग को 20142.60 लाख बजट मिला लेकिन विभाग सिर्फ 15837.87 लाख ही खर्च कर सका। वर्ष 2008-09 में 22821 लाख बजट मिला और 19290.84 लाख ही खर्च हो सका।

वर्ष 2009-10 में भी यही हाल रहा और विभाग को आवंटित कुल बजट 23019.56 लाख में से 17016.49 लाख रुपए ही खर्च हो सके। इधर संचालनालय के कर्मचारी ही कह रहे हैं कि विभाग के वरिष्ठ अधिकारी और उनके चहेते एसी कमरों में बैठकर योजनाओं को कागजी अमलीजामा पहनाते रहते हैं। जमीनी स्तर पर न तो पशुओं के संवर्धन और न ही उनके संरक्षण की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। जितना बजट व्यय करना दिखाया जाता है उसका 20 प्रतिशत भी जमीनी स्तर पर काम नहीं होता।



सिस्टम में सुधार की जरूरत

डेपुटेशन वाले सभी अधिकारियों की सेवाएं वापस विभाग में तलब होनी चाहिए, क्योंकि इससे विभाग का कार्य सफर करता है। इस संबंध में प्रमुख सचिव के यहां से कलेक्टरों को एक पत्र जारी हुआ है। जिला और जनपद पंचायतों या रोजगार गारंटी योजना में अटैच लोग जोड़तोड़ कर वापस नहीं आना चाहते। ग्रामीण क्षेत्रों में जाने की बजाय विभागीय अधिकारियों, डाक्टरों का शहरी क्षेत्रों में रहना पसंद करने की बात सही है। जब तक डाक्टरों के लिए गांवों में पदस्थापना संबंधी कोई कड़ा नियम नहीं बनेगा तब विभाग में इसी तरह से कार्य होगा। विभाग द्वारा दिए गए आंकड़े एकदम सही हैं। बजट खर्च न हो पाने के बारे में कुछ नहीं सकता। विभाग को कम बजट मिलता है, इसलिए विभाग बुरे दौर से गुजर रहा है। निचले स्तर तक पश्ुाओं को आसानी से चिकित्सा सेवाएं मिल सकें इस दिशा में प्रयास किए जाएंगे। प्रदेश में दूध उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हो रहा है।

आरके रोकड़े
संचालक पशु चिकित्सा सेवाएं

डेपुटेशन वालों की वापसी नहीं

जो भी डॉक्टर अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर हैं उन्हें वापस लाने कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। विभाग के जो रिक्त पद हैं उन्हें भरने की कार्रवाई शुरू की जाएगी। विभाग आवंटित बजट पूरा खर्च नहीं कर पाता इसके पीछे कई तकनीकि कारण होते हैं। विभागीय आंकड़ों के गलत होने के संबंध में फिलहाल कुछ नहीं ेकह सकता। जो अधिकारी सीईओ के पदों पर कार्यरत हैं वह भी विभाग का काम ही करते हैं। पशु संवर्धन की दिशा में जमीनी स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं।

मनोज गोयल
प्रमुख सचिव
पशुपालन विभाग
20 कलेक्टरों पर लटकी तलवार




नरेगा में भ्रष्टाचार पर मुख्य सूचना आयुक्त हुए सख्त

रवीन्द्र जैन

भोपाल। मध्यप्रदेश के बीस से अधिक कलेक्टरों पर निलंबन की तलवार लटक गई है। जिस नरेगा योजना में भ्रष्टाचार के आरोप में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अनुसूचित जाति के आईएएस अधिकारी केपी राही व पिछड़े वर्ग की आईएएस अधिकारी अंजू सिंह बघेल को निलंबित किया था, उसी आरोप में मप्र के लगभग बीस ऐसे आईएएस अधिकारी लपेटे में आ सकते हैं जिन्होंने कलेक्टर की कुर्सी पर रहकर नरेगा योजना की राशि का जमकर दुरूपयोग किया है।

सामाजिक कार्यकर्ता अजय दुबे ने मप्र के सामान्य प्रशासन विभाग से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी थी कि - कितने आईएएस अधिकारियों के विरुद्ध कलेक्टर के रुप नरेगा योजना की राशि के दुरूपयोग की शिकायतें शासन को मिली हैं। दुबे ने नरेगा योजना की राशि में किए गए दुरूपयोग की फाइलों की भी छाया प्रतियां मांगी थीं। राज्य सरकार ने दुबे को यह जानकारी नहीं दी तो उन्होंने ने मुख्य सूचना आयुक्त पीपी तिवारी के यहां अपील की। दुबे की अपील पर मुख्य सूचना आयुक्त तिवारी ने सुनवाई करने के बाद फरवरी 2010 में राज्य सरकार को निर्देश दिया कि - दुबे उक्त जानकारी उपलब्ध कराई जाए। लेकिन सराकर ने फिर भी यह जानकारी नहीं दी तो 8 अप्रेल 2010 को मुख्य सूचना आयुक्त पीपी तिवारी ने सख्त कदम उठाते हुए सरकार को संबंधित सभी फाइलें सूचना आयोग भेजने के निर्देश दिए हैं।

आयुक्त के इस निर्देश से मंत्रालय में हड़कंप मच गया है क्योंकि यदि इन फाइलों पर कार्यवाही की गई तो कम से कम बीस कलेक्टरों को निलंबित करना पड़ सकता है और यदि मुख्यमंत्री ने यह कार्यवाही नहीं की तो कोई भी व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है।

शनिवार, अप्रैल 17, 2010

आईएएस अंजू सिंह बघेल के
खिलाफ लोकायुक्त में शिकायत 







उदयपुर के दिव्या मार्बल को लाभ पहुंचाने का मामला

रवीन्द्र जैन
भोपाल। मध्यप्रदेश के आईएएस अधिकारियों पर लोकायुक्त का शिकंजा कंसता जा रहा है। शनिवार को प्रदेश की आईएएस अधिकारी अंजूसिंह बघेल के खिलाफ लोकायुक्त में एक शिकायत दर्ज हुई है।  उन पर कटनी में कलेक्टर के पद रहते सुप्रीम कोर्ट के आदेश के स्थगन के बाद भी वन भूमि में मार्बल व्यपारियों को उत्खनन की अनुमति देकर भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया गया है। अंजूसिंह बघेल भ्रष्टाचार के आरोप में पहले से ही निलंबित हैं।
    शिकायतकर्ता कटनी निवासी अरुण अग्रवाल ने शुक्रवार को लोकायुक्त के समक्ष शपथ पत्र के साथ की शिकायत में कहा है कि - कटनी की तत्कालीन कलेक्टर अंजूसिंह बघेल, खनिज निरीक्षक क्यूए रहमान, तत्कालीन नायब तहसीलदार सीएस मिश्रा तथा राजस्व निरीक्षक प्रभाष बागरी, पटवारी अशोक खरे ने राजस्थान के खनिज व्यापारी और दिव्या मार्बल के पार्टनर शांतिलाल सिंघवी उदयपुरवालों से करोड़ों रुपए रिश्वत लेकर कटनी जिले की बोहरीबंद तहसील के ग्राम निमास के खसरा क्रमांक 220 की वनभूमि में अवैध उत्खनन करवाकर शासन करोड़ों रुपए का अनुचित लाभ लेकर शासन को राजस्व का नुक्सान पहुंचाया है।
    सूत्रों के अनुसार लोकायुक्त ने इस शिकायत को गंभीरता से लिया है। लोकायुक्त के निेर्दश पर ही उक्त शिकायत पंजीकृत की गई है। उक्त शिकायत में दावा किया गया है कि - प्रतिबङ्क्षधत क्षेत्र में मार्बल व्यापारियों ने अफसरों की मिलीभगत से लगभग दो करोड़ रुपए का मिनरल उत्खनन किया है। इस शिकायत के साथ प्रमाण के रुप में 38 दस्तावेज संलग्र किए गए हैं।
156 (3) का काटा पानी नहीं मांगता
    मध्यप्रदेश की राजनीति में इन दिनों धारा 156 (3) का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। यह धारा विरोधियों को निपटाने के लिए एक अच्छा उपकरण सिद्ध हुई है। आम पाठक की विधिक निरक्षरता का फायदा लेकर इस धारा के सहारे तत्काल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को पटकनी दी जा सकती है। अभी हाल में कैलाश विजयवर्गीय और रमेश मेंदोला जिस राजनीतिक ऊहापोह में फँसे हैं, उसके पीछे भी यही धारा है और इसके पहले म.प्र. के पूर्व डीजीपी स्वराजपुरी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज ङ्क्षसह चौहान, पूर्व लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय ङ्क्षसह, नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी तक के विरुद्ध यह धारा काम में लाई गई है। इनमें से श्री पुरी के हाथों से डीजीपी का पद जाता रहा। मुख्यमंत्री के सामने भी एक बड़ा राजनीतिक संकट आ खड़ा हुआ। पूर्व लोकायुक्त श्री दयाल को भी पता लगा कि यह कड़वी गोली उन्हें भी निगलनी पड़ सकती है।
धारा 156 (3) है क्या?
    भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुसार कोई मजिस्ट्रेट, जिसे धारा 190 में इस हेतु स़ाक्त किया गया हो, 156 (3) के तहत जांच के आदेश दे सकता है। यह प्राइव्हेट कंप्लेंट की तरह है जिसके तहत मजिस्ट्रेट पुलिस को विवेचना के लिए निर्देशित करता है। धारा 156 (3) के तहत न तो मजिस्ट्रेट को कोई सुविस्तृत आदेश देना होता है, न उसे अपने आदेश के कारण बताने होते हैं। यह मजिस्ट्रेट के भीतर निहित दृष्टिकोण है कि वह ऐसा करता है या नहीं। इसके तहत वह मामले का संज्ञान भी नहीं लेता। इसलिए हुआ यह है कि धारा 156 (3) मैकेनिकल कार्यवाही हो गई है। यह सिर्फ शिकायत को पुलिस के पास प्रेषण-अग्रेषण करने के काम आ रही है।
    इसके विरुद्ध किसी तरह की राहत नहीं है। यहां होता यह है कि आदेश एक न्यायालय द्वारा किया जाता है। प्राय: शिकायत के दिन ही आदेश हो जाता है। संबंधित पक्ष को सुने बिना ही हो जाता है। उनकी पीठ पीछे ही। इकतरफा होने के बाद भी इससे आहत होने वाला पक्ष चूं नहीं कर पाता। न्यायालयीन आदेश होने से पूरा मीडिया इसकी ओर दौड़ पड़ता है और आहत पक्ष को भारी सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिष्ठा की क्षति उठानी पड़ती है।
    कई प्रकरणों में उच्च न्यायालय एवं सुप्रीम कोर्ट तक ने बार-बार यह अभिनिर्धारित किया है कि धारा 156 मजिस्ट्रेट को निर्देश की जो शक्ति देती है, वह शक्ति न्यायोचित तरह से इस्तेमाल होनी चाहिए, यांत्रिक तरीके से नहीं। लेकिन आज तक कभी भी 'न्यायोचितÓ और 'यांत्रिकÓ का फर्क एकदम स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं किया जा सका। लिहाजा 156 (3) तुरंत दान महाकल्याण की तरह चलती है। चूंकि भारत में अदालतों की सामाजिक प्रतिष्ठा काफी ऊंची है, वे 'संप्रभुÓ का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए उनका आदेश भले ही वह बिना गुण दोष पर विचार किए दिया गया हो और आहत पक्ष के पीठ पीछे दिया गया हो। अपनी तरह की एक 'प्रभाÓ अर्जित कर लेता है और सबको लगता है, कोई बड़ी चीज हो गई। अदालत ने आदेश दिया है तो कुछ सोच-समझ कर ही दिया होगा। अदालत ने आदेश दिया है तो जरूर कोई बात होगी। वैसे भी राजनेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध एक तरह का सिनिसिज्म तो चलता ही है। वे कितनी ही मेहनत करें, लेकिन सोच यही है कि मजा करते हैं।
    न इस प्रकरण में कोई गुण-दोष ण्वमऱ्ा हुआ है, न स्वराज पुरी के मामले में हुआ था, न दिग्विजय ङ्क्षसह या शिवराज ङ्क्षसह चौहान के, लेकिन चोट सभी को लगी। कम या ज्यादा पर विवाद हो सकता है। अदालतों के 'निर्णयÓ की वी.आई.पी. - विजिबिलिटी ज्यादा है। इससे तो बेहतर है कि अधिकारी और राजनेता अपने विरुद्ध एफ.आई.आर. प्रशासनिक तरीके से ही हो जाने दिया करें। कम से कम उनसे इतना बड़ा ड्रामा तो नहीं क्रिएट होगा। या फिर ठंडे मन से धारा 156, दंड प्रक्रिया संहिता में पंजाब जैसे राज्यों की तरह राज्य-संशोधन लाने पर विचार किया जाए ताकि इस धारा के माध्यम से सार्वजनिक छवियों के ये युद्ध रोके जा सकें। मीडिया को कोसने का अब बहुत ज्यादा अर्थ रह नहीं गया है क्योंकि उन्होंने तो सनसनी बेचने को अपना नैतिक अधिकार ही नहीं, पैतृक धंधा बना लिया है। लेकिन फस्र्ट इनफॉर्मेशन रिपोर्ट को फस्र्ट इंपल्स रिपोर्ट बनने से रोकना ही होगा। जो प्रकटत: निर्दोष-सा दिखने वाला आदेश 156 (3) के मामलों में दिया जाता है कि पुलिस जांच करे और दोषी पाए तो कार्रवाई करे, नहीं पाए तो रिपोर्ट करें, वह इतना मासूम भी नहीं होता और हँसी-हँसी में किसी की इज्जत की सरे-बाजार, बीच चौराहे इज्जत उतार ली जाती है। कैलाश विजयवर्गीय आज इसे भुगत रहे हैं, किन्तु कल इसे भुगतने वाले आप भी हो सकते हैं।

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

  भ्रष्ट कलेक्टरपर कार्यवाही क्यों नहीं?


 
    रवीन्द्र जैन

    भोपाल। शिवपुरी के महाभ्रष्ट कलेक्टर राजकुमार पाठक को कौन बचा रहा है? उन्हें बचाने के लिए फोन कौन कर रहा है? आईएएस अफसर की जांच के लिए नॉन आईएएस अधिकारियों को झाबुआ भेजने का निर्णय किसने और किसके इशारे पर लिया? जांच रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के प्रमाण सामने आने के बाद भी अभी तक किसी के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की गई? उन सप्लायरों के खिलाफ आज तक कार्यवाही क्यों नहीं हुई जिन्होंने आदिवासी बच्चों की शिक्षा के नाम पर पांच करोड़ की शिक्षा सामग्री सप्लाई किए बिना ही भुगतान डकार लिया। सारे प्रमाण होने के बाद भी आखिर क्या बात है कि आईएएस अधिकारी राजकुमार पाठक ठप्पे से कुर्सी पर बैठकर पूरी सरकार को ठेंगा दिखा रहे हैं? आईएएस अधिकारी केपी राही और अंजूसिंह बघेल को निलंबित करने में जिस सरकार के हाथ नहीं कांपे, उस सरकार के हाथ पाठक के खिलाफ कार्यवाही करने से क्यों कांप रहे हैं? इस पूरे मामले में मप्र की शिक्षामंत्री अर्चना चिटनिस की रहस्यमय चुप्पी भी आश्चर्यजनक बनी हुई हैं।
    कांग्रेस पार्टी ने राजकुमार पाठक के खिलाफ लोकायुक्त में शिकायत दर्ज करा दी है। पार्टी के प्रवक्ता केके मिश्रा ने शपथ पत्र के साथ की शिकायत में 102 पेज के वे दस्तावेज संलग्र किए हैं जो पांच करोड़ के भ्रष्टाचार के प्रमाण हैं। यह प्रकरण वर्ष 2007 का है। झाबुआ के तत्कालीन कलेक्टर राजकुमार पाठक ने सर्वशिक्षा अभियान की राशि के पांच करोड़ निकालकर झाबुआ ब्लाक में जमा कराए। फिर अपने हाथ से ही इंदौर, भोपाल, धार के सप्लायरों को शिक्षा सामग्री क्रय करने के सीधे आदेश दिए। जबकि सर्वशिक्षा अभियान में शिक्षा सामग्री क्रय करने का अधिकार पालक शिक्षक संघ को ही हैं। कलेक्टर जैसे अधिकारी ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि 25 हजार से अधिक का सामान क्रय करने के लिए निवदाएं आंमत्रित की जाती हैं। सप्लायरों ने कलेक्टर की योजना के अनुरूप साधे कागज पर बिल बनाकर सीधे कलेक्टर को दिए और कलेक्टर ने इन बिलों के साथ अपना कवरिंग लेटर लगाकर खंड स्त्रोत समन्वयक को भुगतान के निर्देश देते हुए यह भी लिखा कि - यह भुगतान पांच करोड़ की राशि में से किया जाए। यानि कलेक्टर ने उक्त पांच करोड़ की राशि जानबूझकर ब्लाक में जमा कराई थी, ताकि कम लोगों की नजर इस पर पड़े। भोपाल में बैठे आईएएस अधिकारी इस पर आपत्ति न करें, इसलिए इसी राशि में से भोपाल में आईएएस एसोसिएशन द्वारा आयोजित फिल्म समारोह के लिए भी पच्चीस हजार रुपए दे दिए गए।
    सूत्र बताते हैं कि - ऐसा केेवल झाबुआ में ही नहीं हुआ, बल्कि बड़वानी, धार, खरगौन में भी हुआ है। आदिवासी विभाग के दो अधिकारी बीजी मेहता व संतोष शुक्ला को ऐसे कारनामों का मास्टर माइंड माना जाता है। मेहता ने शाजापुर में करोड़ों रुपए की बेनामी सम्पत्ति बना ली है। इन अफसरों पर अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है। तत्कालीन खंड स्त्रोत समन्वयक जीवनलाल शर्मा अचानक फरार हो गया है। आदिवासी विभाग के इस कर्मचारी को निलंबित करने की फाइल तैयार हो चुकी है।
सबसे बड़ा सप्लायर : इंदौर अबेकस एज्युकेशन प्रा. लि.ने इस घपले में महती भूमिका अदा की है। राज्य सरकार के हाथ अभी तक इस सप्लायर तक नहीं पहुंचे हैं। झाबुआ घोटाले में सवा दो करोड़ रुपए का भुगतान अकेले इस कंपनी ने लिया है, जबकि स्टॉक रजिस्टर के अनुसार सामान कुछ भी सप्लाई नही हुआ है। इस कंपनी ने साधे कागज पर बिल बनाए। इन बिलों पर न तो बिल नंबर हैं और न ही तिथि डाली गई है। सबसे गंभीर बात यह है कि प्रा. लि. कंपनी होने के बाद भी इस कंपनी के पास सेल्स टैक्स नंबर तक नहीं है, जबकि मप्र वैट अधिनियम के तहत जो सामान कंपनी ने सप्लाई किया है, उस पर 12.5 प्रतिशत बैट कर लगाया जाना है। सवा करोड़ की सप्लाई में 28 लाख की कर चोरी तो इसी कंपनी ने की है। दूसरी ओर खंड स्त्रोत समन्वयक को कायदे से टीडीएस काटकर ही इस कंपनी को भुगतान करना था, वह भी नहीं काटा गया। सूत्रों का कहना है कि - इस कंपनी ने किसी बैंक में अवैध खाता खुलवाकर उक्त राशि आहरित कर ली है।
सात सौ के स्थान सैंतीस सौ पचास : अबेकस प्रा. लि. मप्र के कई शहरों में बच्चों की क्लास भी संचालित करती है। अबेकस की अधिकृत वेबसाइट  के अनुसार उक्त क्लास में आने वाले बच्चों को कंपनी की ओर से अबेकस किट लेना अनिवार्य है। वेबसाइट पर अबेकस किट की कीमत 700 रुपए बताई गई है, जबकि इस कंपनी ने झाबुआ में अबेकस किट की सप्लाई सैंतीस सौ पचास रुपए में करते हुए भुगतान लेना बताया है। कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा ने इस कंपनी को तत्काल ब्लैक लिस्टेट करने एवं इस कंपनी द्वारा मप्र शिक्षा विभाग में अभी तक की गई सप्लाई की जांच कराने की मांग की गई है। उन्होंने लोकायुक्त में की गई शिकायत में भी इस कंपनी को हुए भुगतान का ब्यौरा भी दिया है।
कहां गए कम्प्यूटर : भोपाल की स्वास्तिक एजेंसी को कम्प्युटर सप्लाई के नाम से साढ़े सात लाख का
भुगतान किया गया है। लेकिन इन कम्प्यूटरों का अभी तक पता नहीं है।
शिक्षामंत्री रहस्यमयी चुप्पी : एक अप्रेल को राज एक्सप्रेस में खबर छपने के बाद मप्र की शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनिस एकदम हरकत में आईं। उन्होंने उसी दिन विभाग के अफसरों की आपात बैठक बुलाकर उन्हें राज एक्सप्रेस की प्रतियां थमाते हुए इस घपले के बारे में उनसे जबाव मांगा था। स्वयं शिक्षामंत्री ने राज एक्सप्रेस संवाददाता से चर्चा में कहा था कि - मैं इन धपलों को रोकने के लिए दीर्घकालीन योजना बना रहीं हूं, लेकिन सप्रमाण खबर छपने के पन्द्रह दिन हो गए हैं और शिक्षामंत्री ने रहस्यमय चुप्पी साध ली हैं। अबेकस ने अपनी बेवसाइट पर शिक्षामंत्री अर्चना चिटनीस का मुस्कारता हुआ चित्र डाल रखा है। यह चित्र राज्य की शिक्षा व्यवस्था को चिढ़ाता ैहुआ नजर आ रहा है।

गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

 कलेक्टर ने डकारे करोड़ों
    सर्वशिक्षा अभियान का सबसे बड़ा घोटाला

रवीन्द्र जैन
   
    झाबुआ/भोपाल। मध्यप्रदेश का आईएएस अधिकारी जो अपनी जड़े मुख्यमंत्री सचिवालय में बताता है, वह आदिवासी बहुल जिले झाबुआ की कलेक्टरी मिलते ही इतना भ्रष्ट कैसे हो जाता है कि गरीब आदिवासी बच्चों की पढ़ाई के लिए आने वाले सर्वशिक्षा अभियान की राशि में से पांच करोड़ की राशि नकली बिल लगाकर, अपने असली हस्ताक्षर करके कैसे निकाल लेता है? इतना ही नहीं यह कलेक्टर चार साल झाबुआ में कई गुल खिलाने के बाद शिवपुरी जैसे जिले में अपनी पदस्थापना भी करा लेता है। राज एक्सप्रेस की जाबांज रिपोटर्स की टीम ने इस महाभ्रष्ट कलेक्टर राजकुमार पाठक की काली करतूतों के पुख्ता प्रमाण हासिल कर लिए हैं।
    राजकुमार पाठक मप्र के प्रामोटी आईएएस अधिकारी हैं। मुख्यमंत्री के सचिव एसके मिश्रा उनके सगे साले हैं तो जाहिर है कि उन्हें बेहतर पोस्टिंग मिलनी ही हैं। राज कुमार पाठक लगभग चार तक झाबुआ में कलेक्टर रहे। उनकी नजर जिले के विकास पर कम और इस आदिवासी जिले के लिए केन्द्र व राज्य से आने वाली राशि पर ज्यादा टिकी रही। बताते हैं कि राजकुमार पाठक ने सर्वशिक्षा अभियान के पैसे को अपने बुढ़ापे को सहारा बनाने के लिए जैसा चाहा, वैसा उपयोग किया। यहां बता दें कि पाठक अगले साल मई में सरकारी नौकरी से रिटायर हो जाएंगे, लेकिन झाबुआ में उन्होंने जो पाप किए हैं उनसे वे शायद अपनी अंतिम सांस तक छुटकारा न पा सकें।  यह तो रही खबर की भूमिका, अब असली मुद्दे पर आते हैं।
कैसे हुआ भ्रष्टाचार : हमने सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत वर्ष 2007 एवं 2008 की जो जानकारी जुटाई है, वह आपके सामने पेश है। तत्कालीन कलेक्टर पाठक झाबुआ जिले के सर्वशिक्षा अभियान के पदेन मिशन संचालक भी थे। मार्च 2007 में सर्वशिक्षा अभियान की राशि में गोलमाल करने के नीयत से उन्होंने लगभग पांच करोड़ रुपए की राशि बीआरसी यानि खंड स्त्रोत समन्वयक, झाबुआ के खाते में जमा कराई ताकि जिले में इस भ्रष्टाचार के बारे में किसी को पता न चल जाए। इसके बाद इंदौर, भोपाल, धार आदि की फर्मों के नाम से कथित रुप से फर्जी बिल तैयार कराए गए और बिना सामान सप्लाई हुए करोड़ों रुपए का भुगतान कर दिया गया।
कैसे हुई सप्लाई : सबसे पहले इंदौर के अबेकस प्रा. लि. की फर्जी सप्लाई के बारे में जान लीजिए। गीता भवन चौराहा इंदौर की इस फर्म को कलेक्टर ने सीधे अबकस सप्लाई करने का ठेका दिया। अबेकस यानि छोटे बच्चों को गिनती सिखाने के लिए जिस छोटे से खिलौने का उपयोग किया जाता है, उसे अबेकस कहते हैं। भोपाल के मारवाडी रोड स्थित जय स्टेशनरी पर अबेकस किट की कीमत ढाई सौ रुपए है। लेकिन अबेकस एज्युकेशन प्रा. लि. इंदौर ने अपने कथित फर्जी बिल में अबेकस किट की कीमत 3750 रुपए के अलावा किट के बैग की कीमत 792 रुपए दर्शाई है। उक्त बिल के अनुसार तत्कालीन कलेक्टर राजकुमार पाठक ने अबेकस की 3600 किट गैग सहित सप्लाई का आदेश दिया था। अबेकस प्रा. लि. इंदौर ने बिना एक किट सप्लाई किए कलेक्टर पाठक के नाम दो बिल दिए। पहले बिल 95 लाख 38 हजार 200 रुपए का, दूसरा बिल 68 लाख 13 हजार रुपए का, साधे कागज पर बने इन बिलों पर न तो तारीख है और न ही बिल नंबर, सेल्स टेक्स नंबर आदि है। तत्कालीन कलेक्टर राजकुमार पाठक ने इन बिलों को अपने कवरिंग लेटर के साथ खंड स्त्रोत समन्वयक को भेजते हुए सीधे भुगतान के निर्देश दे दिए। इस भुगतान के बारे में कैश बुक में स्पष्ट लिखा है कि कलेक्टर के निर्देश पर उक्त भुगतान किया गया। मजेदार बात यह है कि अबेकस एज्युकेशन प्रा. लि. इंदौर के 68 लाख 13 हजार रुपए वाले बिल का भुगतान जिला सर्व शिक्षा केन्द्र से भी कराया गया है।
धड़ाधड़ छपवाए नकली बिल : केवल अबेकस एज्युकेशन प्रा. लि. इंदौर इन फर्जी बिलों के आधार पर करोड़ों रुपए के भुगतान के बाद भी तत्कालीन कलेक्टर राजकुमार पाठक का पेट नहीं भरा तो उन्होंने मप्र राज्य सहकारी उपभेक्ता संघ मर्यादित, इंदौर के कथित फर्जी बिलों के आधार पर एक करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया। स्टॉक रजिस्टर के अनुसार संघ ने इस अवधि में कोई सामान ही सप्लाई नहीं किया है।

      



     भ्रष्टाचार में डूबे अधिकारी
    - राजकुमार पाठक तत्कालीन कलेकटर झाबुआ
    - बीजी मेहता, तत्कालीन जिला योजना समन्वयक
    - जीवनलाल शर्मा, खंंड स्त्रोत समन्वयक झाबुआ

    इन फर्मों को भुगतान किया गया, लेकिन सामान सप्लाई नहीं हुआ
    - अबेकस एज्युकेशन प्रा. लि. इंदौर                    68,01,077.00  दिनांक 7 अप्रेल 07
    - अबेकस एज्युकेशन प्रा. लि. इंदौर                     95,38,2000.00 दिनांक 23 अप्रेल 07
    - मप्र राज्य सहकारी उपभोक्ता संघ मर्यादित इंदौर   47,68,838.00  दिनांक 7 अप्रेल 07
    - मप्र राज्य सहकारी उपभोक्ता संघ मर्यादित इंदौर   78,23,040.00  दिनांक 7 अप्रेल 07
    - स्वास्तिक एजेंसी, मारवाडी रोड इंदौर                   7,67,306.00  दिनांक 7 अप्रेल 07
    - होलीपेथ इंटरनेशनल प्रा. लि. भोपाल                   7,86,800.00  दिनांक 16 अप्रेल 07
    - महावीर प्रिटिंग प्रेस, धार                                     5,54,700.00 दिनांक 16 अप्रेल 07
    - द रिपब्लिकन प्रेस इलाहबाद                                 28,29,048.00 दिनांक 16 अप्रेल 07
    - गोयनका आफसेट प्रिंटिंग, इंदौर                         8,95,600.00 दिनांक 18 मई 07

    अफसरों का कहना है
    - उस समय जिला योजना समन्वयक का चार्ज बीजी मेहता के पास था और वे प्रथम श्रेणी अधिकारी हैं। इसलिए उन्हें मेरे समक्ष समस्त दस्तावेज सतर्कता व सावधानी से प्रस्तुत करना चाहिए था। कलेक्टर के पास कार्यग् की अधिकता होती है अत: प्रथम श्रेणी अधिकारी द्वारा प्रस्तुत दस्तावजों पर हस्ताक्षर करते समय ज्यादा गहराई में नहीं जाते हैं।
    राजकुमार पाठक
    तत्कालीन कलेक्टर


    - मुझे जैसा कलेक्टर का लिखित निर्देश मिलता गया मैं भुगतान करता गया। सामग्री खरीदने के न तो मैंने आदेश दिए और न ही मैंने खरीदी है। कलेक्टर के निर्देश पर मेरे कार्यालय के खाते में पांच करोड़ रुपए जमा किए गए थे, और उनके निर्देश पर ही उक्त राशि व्यय की गई।
    - जीवनलाल शर्मा
       खंड स्त्रोत समन्वयक, झाबुआ

   
    - जिला योजना समन्वयक हमसे डीडी बनवाकर अपने पास बुला लेते थे। इसके बाद किसे भुगतान कर रहे हें किसे नहीं हमें कुछ नहीं मालूम।
    - राजेश वागरेचा
       लेखापाल, बीआरसी, झाबुआ

   
    - मेहता नदारत
    जिला योजना समन्वयक बीजी मेहता इस संबंध में किसी से बात करने को तैयार नहीं है, इस बारे में पूछने पर वे अपना मोबाईल बंद कर लेते हैं। यहां बता दें कि मेहता मूलरुप से आदिवासी विकास विभाग से हैं तथा उनकी छवि जादूगर की है जो उल्टा सीधा करके करोड़ों रुपए बनाना जानते हैं। बताते हैं कि इस नौकरी में मेहता ने लगभग तीस करोड़ से अधिक की सम्पत्ति जुटा ली है।

     वर्तमान अधिकारी परेशान
    - झाबुआ में पदस्थ वर्तमान जिला योजन समन्वयक बी सुभाष त्रिवेदी से जब अबेकस सप्लाई के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वे नहीं जानते कि अबेकस क्या होता है। उन्होंने इसका नाम ही पहली बार सुना है। त्रिवेदी का कहना है कि वर्ष 2007 में जो राशि बीआरसी में जमा की गई थी, वह शिक्षकों के वेतन की राशि थी।
    - खंढ स्त्रोत समन्वयक झाबुआ पद पर वर्तमान में पदस्थ बीआरसी सोमसिंह भूरिया ने बताया कि - उनकी जानकारी एवं स्टॉक रजिस्टर के अनुसार 2007 में जिस सामान का भुगतान किया गया है वह सामान विभाग में आया ही नहीं। उन्होंने कहा कि सूचना के अधिकार के तहत आप भी स्टॉक रजिस्टर लेकर चेक कर सकते हैं।

     राज्य सरकार को मालूम है :
    संयुक्त संचालक कोष एवं लेखा चांचोलकर का कहना है कि आडिट में उक्त गउग़डी पकड़ ली गई थी तथा इस गंभीर आर्थिक अनियमितता की शिकायत राज्य सरकार तक पहुंचा दी गई है।
   
  यह भी संदेह के दायरे में
        तत्कालीन कलेक्टर राजकुमार पाठक के निर्देश पर संविदा शिक्षकों के मानदेय के नाम पर 6 अप्रेल 07 को डेढ़ करोड़ की राशि बीआरसी से निकाली गई है। यह भी संदेह के दायरे में है।


    संविदा शिक्षक वर्ग 2

    विकास खंड       शिक्षकों की संख्या             राशि
    जोबट                      20                         4,90,000
    अलीराजपुर             27                          6,15,000
    भाभरा                     25                          7,00,000
    थांदला                     22                          5,14,000
    कुल राशि                                         23,66,000

    संविदा शिक्षक वर्ग 3
    विकास खंड       शिक्षकों की संख्या             राशि
    पेटलावद               102                      18,55,000
    रामा                      8                          40,000
    उदयगढ़                116                      18,32,500
    जोबट                  151                       24,20,000
    अलीराजपुर              88                       14,25,000
    भाभरा                   95                       16,57,500
    सोण्डवा                 89                       14,17,500
    थांदला                 122                       20,05,000
    कुल राशि                                        1,26,525,00
   

          - सर्वशिक्षा अभियान योजना में शत प्रतिशत राशि केन्द्र सरकार से मिलती है। इसके योजना के संचालन का जिम्मा सरकार ने कलेक्टरों को सौंपा है।
        - कलेक्टर भी इस योजना की राशि का दुरूपयोग न कर सकें, इसलिए इस योजना की राशि से सामग्री क्रय करने का अधिकार पालन शिक्षक संघ को दिया गया है।
        - मप्र राज्य सहकारी उपभोक्ता संघ मर्यादित को केवल 25 आयटम ही सप्लाई करने का अधिकार है। लेकिन उसके कथित फर्जी बिलों पर कई ऐसे आयटम खरीदना बताया गया है, जो उसे सप्लाई करने का अधिकार ही नहीं है।
        - राज्य भंडार क्रय नियमों के अनुसार 25 हजार रुपए से अधिक का सामान क्रय करने पर कम से कम तीन कुटेशन बुलाना जरूरी है।
        - लगभग पांच करोड़ से अधिक की इस खरीदी के लिए न तो टेंडर बुलाए गए और न ही अखबारों में विज्ञप्ति प्रकाशित की गई।
        - तत्कालीन कलेक्टर राजकुमार पाठक ने सीधे तौर नपर ठेकेदारों को सप्लाई के आदेश दे दिए और उनसे बिल भी अपने नाम बुलवाकर बीआरसी से भुगतान भी करवा दिया गया।

   




   

   
   

शुक्रवार, मार्च 19, 2010



मिस्टर विधायक ... यह चोरी है

विधायकों के फर्जी यात्रा देयकों पर करोड़ों का भुगतान
जांच हुई तो छिन सकती है सदस्यता, हो सकती है जेल




रवीन्द्र जैन
भोपाल। मध्यप्रदेश के विधायक धडल्ले से विधानसभा सचिवालय में फर्जी यात्रा देयक लगाकर राज्य सरकार को करोड़ों रुपए का चूना लगा रहे हैं, लेकिन सब कुछ जानते हुए इस फर्जीवाडे को रोकने की हिम्मत किसी में नहीं है। इस संबंध में एक पूर्व हाईकोर्ट जज का कहना है कि - इस मामले की गंभीरता से जांच हुई तो न केवल मप्र के सौ से अधिक विधायकों की सदस्यता समाप्त हो सकती है, बल्कि उन्हें जेल भी भेजा जा सकता है।

विधानसभा में सौ से अधिक विधायक विधानसभा सत्र के दौरान भोपाल आने जाने की यात्रा ट्रेन से करते हैं और उसी तिथि में अपने वाहन से आने जाने का फर्जी देयक बनाकर विधानसभा सचिवालय से सड़क मार्ग से आने का भी भुगतान ले लेते हैं। इनमें ग्वालियर चंबल संभाग एवं रीवा सतना के विधायकों की संख्या सबसे अधिक है। राज एक्सप्रेस ने सूचना के अधिकार के तहत विधानसभा सचिवालय से जानकारी निकाल कर इस फर्जीवाडे को उजागर करने का प्रयास किया है।

क्या है नियम : मप्र में विधायकों को विधानसभा सत्र के दौरान बैठकों में शामिल होने भोपाल आने जाने के लिए रेल अथवा वाहन भत्ते की पात्रता है। वाहन से आने विधायकों के लिए मप्र विधान मंडल यात्रा भत्ता नियम 1957 है एवं रेल से आने वालों के लिए मप्र विधानसभा सदस्य रेल द्वारा निशुल्क अभिवहन नियम 1978 प्रभावशील है। पहले वाहन से आने वालों के बारे में चर्चा करते हैं। विधायक यदि सत्र में सम्मलित होने के लिए स्वयं के वाहन से आते हैं तो उन्हें आने एवं जाने के लिए 6 रुपए किलोमीटर की दर से यात्रा भत्ता पाने का हक है, लेकिन इसमें स्पष्ट है कि उक्त वाहन सदस्य के नाम रजिस्टर्ड होना चाहिए। इसी प्रकार रेल यात्रा के संबंध में सभी विधयकों को राज्य के अंदर असीमित एवं राज्य के बाहर एक वर्ष में अधितम 6000 किलोमीटर यात्रा की पात्रता है।

क्या कर रहे हैं विधायक : मप्र के लगभग आधे विधायक विधानसभा के सत्र के दौरान रेल से यात्रा करके भोपाल पहुंचते हैं तथा विधानसभा सचिवालय में वाहन से आने का यात्रा देयक बनाकर वाहन किराया वसूल लेते हैं। नियम में साफ लिखा है कि - वाहन भत्ता उसी वाहन का दिया जाएगा जो विधायक के स्वयं के नाम रजिस्टर्ड हो। लेकिन सूचना के अधिकार में मिली जानकारी के अनुसार अनेक विधायकों ने दूसरे के वाहन का नंबर देकर देयह तैयार कराए हैं और विधानसभा सचिवालय ने भी बिना जांच किए भुगतान कर दिया।

सचिवालय की भूमिका संदिग्ध : इस संबंध में विधानसभा सचिवालय की भूमिका भी संदिग्ध है। नियमों में स्पष्ट लिखा है कि विधायक के निजी वाहन पर ही यात्रा भत्ते की पात्रता है, ऐसे में सचिवालय बिना जांच किए कैसे यात्रा भत्ते का भुगतान कर रहा है? इसके अलावा प्रमुख सचिव के बिना जांच के यह भुगतान कैसे कर रहे हैं। नियमों में लिखा है कि विधायक अनी यात्रा का विवरण प्रमुख सचिव को देगा। इसके बाद विधानसभा सचिवालय देयकों की दो प्रति तैयार कर उन दोनों पर विधायक के हस्ताक्षर कराएंगा तथा एक प्रति पर प्रमुख सचिव के हस्ताक्षर के बाद भुगतान किया जाएगा। यहां बता दें कि विधानसभा सचिवालय के लगभग सभी अधिकारियों, कर्मचारियों को जानकारी है कि - विधायक वाहन व रेल का किराया एक साथ ले रहे हैं, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं है उन्हें ऐसा करने से रोकने दें।

यह तो वर्षों से हो रहा है : इस संबंध में जब हमने सूचना के अधिकार के तहत विधानसभा सचिवालय में आवेदन लागया तो मप्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩे वाले एक वरिष्ठ विधायक हमें सलाह दी कि - ऐसा मत करो, क्योंकि यह तो वर्षों से हो रहा है। यदि पीछे पड़े मप्र विधानसभा के चुनाव दुबारा कराने पड़ेंगे, क्योंकि बहुत कम विधायक बचेंगे, जो यह घपला नहीं कर रहा है। कांग्रेस विधायक दल के सचेतक एनपी प्रजापति से इस संबंध में टिप्पणी के लिए अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि - केवल विधायकों के पीछे क्यों पड़े हो? मप्र के कई अधिकारी भी फर्जी यात्रा देयक ले रहे हैं।

भोपाल के विधायक भी पीछे नहीं : नियमों में साफ लिखा है कि भोपाल से आठ किलोमीटर दूर से आने वाले वाहन यात्रा भत्ता पाने के हकदार हैं, लेकिन भोपाल के सभी विधायकों ने विधानसभा से मनचाहा वाहन भत्ता वसूल किया है। जनवरी से दिसम्बर 2009 तक भोपाल के विधायकों ने वाहन भत्ते के रुप में हजारों रुपए लिए व हजारों रुपए के रेल कूपन भी लिए।

विधायक                                         वाहन भत्ता                              रेल कूपन राशि

1 - ब्रम्हानंद रत्नाकर बैरसिया              23780                                       18,000

2 - आरिफ अकील                                27200                                       18,000

3 - विश्वास सारंग                                  32000                                         94,000

4 - उमाशंकर गुप्ता                                 48968                                       2,68,000

5 - ध्रुवनारायण सिंह                             14000                                           66,000

6 - जितेन्द्र डागा                                   22800                                          36,000


जानकारी मिली तो करूंगा कार्यवाही : इस संबंध में स्पीकर ईश्वरदास रोहाणी ने कहा कि विधायक ऐसा कर रहे हैं, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। यदि कोई इस संबंध में सप्रमाण शिकायत मिली तो मैं सख्त कार्यवाही करुंगा।








सभी पर कार्यवाही होना चाहिए : नेता प्रतिपक्ष जमुनादेवी का कहना है कि इस मामले की उच्च स्तरीय जांच होना चाहिए और सभी दोषी विधायक वे चाहे किसी भी दल के हों, उनके विरूद्ध सख्त कार्यवाही होना चाहिए।






एक वर्ष में सबसे ज्यादा वाहन भत्ता लेने वाले विधायक

विभा क्षेत्र क्रमांक                      विधायक रेल राशि           वाहनों का राशि

3            सुरेश चौधरी                       1,66,792                              95,684
                      
7            शिवमंगल सिंह तोमर       1,98,000                               99,660

18           लाखन सिंह यादव           2,00,000                                93,600

62          जुगलकिशोर बागरी          1,88,000                              1,10,004
   
67          रामलखन सिंह                 1,10,000                              1,03,628

71          लक्ष्मण तिवारी                1,43,150                              1,31, 684

72         गिरिश गौतम                   2,70,000                               1,18,304

78          विश्वमित्र पाठक              1,32,000                                1,20,000

80          राम लल्लू वैश्य               70,000                                    91,280

81           रामचरित्र                          86,000                                   97,799


87           बिसाहूलाल सिंह           1,26,000                                  1,12,588

94          निथिश पटेल                 1,86,000                                  1,66,299

226        राधेश्याम पाटीदार             48020                                     96,740

229       खुमानसिंह शिवाजी           18,000                                     95,832


230       ओमप्रकाश सचलेचा        1,38,000                                   1,24,500

मंगलवार, मार्च 16, 2010

किसानों के नाम पर 200 करोड़ का घोटाला

राज्य सरकार ने इस घोटाले में 2200

कर्मचारियों को दोषी करार दिया


















रवीन्द्र जैन

भोपाल । लीजिए मप्र में एक और बड़ा घोटाला हाजिर है। मध्यप्रदेश सरकार ने किसानों की ऋण माफी के नाम पर 114 करोड़ का घोलमाल होना स्वीकार कर लिया है। लेकिन अभी जांच जारी है और घपला दो सौ करोड़ से अधिक हो सकता है। राज्य की सहकारी बैंकों व प्राथमिक सहकारी समितियों ने धडल्ले से अपात्रों से मिलीभगत करके यह घपला किया है। इस घपले में जिला सहकारी बैंकों के 299 अधिकारी, 395 कर्मचारी एवं प्राथमिक सहकारी समितियों के 1507 कर्मचारी दोषी पाए गए हैं किन्तु राज्य सरकार ने अभी तक केवल 10 कर्मचारियों को ही सेवा से पृथक करने की कार्यवाही की है।

क्या है योजना : केन्द्र सरकार ने मप्र के गरीब एवं बैंकों का कर्ज न पटा सकने वाले किसानों के ऋण माफ करने एवं उन्हें ऋण चुकाने में राहत देने की योजना के तहत राज्य सरकार को 914 करोड़ रुपए की राशि उपलब्ध कराई थी। इस राशि से जिला केन्द्रीय सहकारी बैंकों को उन किसानों के ऋण पूरी तरह माफ करने थे जिनके पास 5 एकड़ से कम भूमि है तथा वे 1997 से 2007 के बीच अपना कर्ज अदा नहीं कर सके हैं, इसके अलावा पांच एकड़ से अधिक भूमि वाले ऐसे किसानों के लिए भी केन्द्र सरकार ने ऋण राहत योजना प्रारंभ की थी जो पिछले दस वर्षों तक बैंकों का ऋण नहीं चुका सके थे।

कैसे आई राशि : केन्द्र सरकार ने नाबार्ड के माध्यम से कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना 2008 के तहत यह राशि मप्र राज्य सहकारी बैंक को दी तथा मप्र राज्य सहकारी बैंक ने यह राशि जिला केन्द्रीय सहकारी बैंकों को राशि की थी।

कैसे हुई गड़बडिय़ां : जिला केन्द्रीय सहकारी बैंकों को भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार किसानों की ऋण माफी एवं ऋण राहत करना थी। ऋण राहत योजना में 5 एकड़ से बड़े किसानों को एकमुश्त राशि जमा करने पर 25 प्रतिशत ऋण से मुक्ति देने की योजना थी। लेकिन यह जानते हुए कि सहकारी बैंकों में बैठे नेता और दलाल घपले से बाज नहीं आएंगे, राज्य सहकारी बैंक ने यह राशि सभी जिलों सहकारी बैंकों को भेज दी। सहकारी बैंको ने भी बेहद लापरवाही का परिचय दिया और ऋण राहत एवं ऋण माफी के प्रकरण प्राथमिक सहकारी समितियों के माध्यम से तैयार कराए। इन समितियों में स्थाई कर्मचारियों की नियुक्ति नहीं होती। जिला सहकारी बैंकों के कर्मचारियों, अधिकारियों एवं समितियों ने सदस्यों ने मनमाने ढंग से जिस किसान का ले देकर कर्ज माफ कर दिया। केन्द्र सरकार ने निर्देश दिए थे कि केवल कृषि ऋण ही माफ किया जाएगा, लेकिन बैंकों एवं सहकारी समितियों ने मकान, मोटर सायकिल, चार पहिया वाहनों के ऋण भी माफ कर दिए।

कैसे हुआ खुलासा : मप्र विधानसभा में कांग्रेस के विधायक डा. गोविन्द सिंह ने 28 जुलाई 2009 को यह मामला विधानसभा में उठाया। इसके बाद 23 जुलाइ्र 2009 को विपक्षी सदस्यों ने इस मुद्दे पर

ध्यानाकर्षण सूचना के तहत सरकार का ध्यान इस घपले की ओर आकर्षित किया। तब सहकरिता मंत्री ने घपले को स्वीकार करते हुए 31 दिसम्बर तक इसकी जांच कराने एवं दोषी अधिकारियों कर्मचारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का भरोसा दिलाया था। लेकिन इस घपले की जांच अभी तक पूरी नहीं हुई है।

अब तक 114 करोड़ का घपला : 10 मार्च 2010 को कांग्रेस के डा. गोविन्द सिंह ने प्रश्र के माध्यम से फिर से इस मामले को विधानसभा में उठाया तो सहकारिता मंत्री बिसेन ने चौंकाने वाली जानकारी दी। उन्होंने सदन में स्वीकार किया कि इस योजना में अभी तक की जांच में 114.81 करोड़ की अनियमितता हो चुकी है। उन्होंने इन अनियमिततओं के लिए जिला सहकारी बैंकों के 218 अधिकारियों, 395 कर्मचारियों को दोषी बताते हुए कहा कि प्राथमिक सहकारी समितियों के 1507 कर्मचारी भी इसके लिए दोषी हैं। उन्होंने कहा कि 2201 दोषी अधिकारी कर्मचारियों में से प्राथमिक सहकारी समिति के केवल 10 कर्मचारियों को सेवा से पृथक कर दिया गया है।

रिकार्ड ही गायब : सहकारिता मंत्री ने विधानसभा में यह कहकर सबको चौंका दिया कि सीधी जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक से इस घपले का रिकार्ड गायब कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि इस रिकार्ड को जप्त करने की कार्यवाही की जा रही है। उन्होंने यह भी बताया कि इसकी जांच में अभी तीन महिने से ज्यादा लग सकते हैं, जब घपले की राशि का सही सही अनुमान लगाया जा सकता है।

भिण्ड में 17 करोड़ का घपला : भिण्ड जिले में इस योजना के तहत सबसे ज्यादा राशि का गोलमाल किया गया है। सहकारिता मंत्री के अनुसार भिण्ड में 16.73 करोड़ की अनियमितता पाई गई है।

सीहोर में लीपापोती के प्रयास : सीहोर जिले में लगभग साठ लाख का घपला है, लेकिन बताया जाता है कि बैंक के अधिकारी कर्मचारी मिलकर इसे दूर करने का प्रयास कर रहे हैं।



एक नजर में

- योजना का नाम : कृषि ऋण माफी एवं ऋण राहत योजना 2008
- कुल आंवटित राशि : 916 करोड़ रुपए
- सरकार द्वारा स्वीकार घपला : 114.81 करोड़
- कुल घपला : लगभग 200 करोड़
- दोषी अधिकारी : 218
- दोषी कर्मचारी : 395 बैंक के
- दोषी कर्मचारी : 1507 प्राथमिक सहकारी समिति के
- देाषी कर्मचारी सेवा से पृथक : मात्र 10 प्राथमिक समितियों के


- यह मप्र के इतिहास में किसानों के नाम पर किया गया अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला है। राज्य सरकार द्वारा दोषी अधिकारियों कर्मचारियों को बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं, इससे उसकी नीयत पर भी शक हो रहा है। कांग्रेस पार्टी इस घपले की विस्तृत शिकायत केन्द्र सरकार से करने जा रही है।



डा. गोविन्द सिंह, विधायक

बुधवार, मार्च 03, 2010

परिवहन विभाग, यानि

सरकार के संरक्षण में भ्रष्टाचार

अवैध कमाई को लेकर दो अफसरों में खींचतान शुरू

आयकर विभाग कर सकता है बड़ी कार्यवाही

प्रशासनिक संवाददाता

भोपाल। मध्यप्रदेश में एक सरकारी विभाग ऐसा भी है जिसमें सरकार के संरक्षण में ही भ्रष्टाचार होता है। स्वयं सरकार ने सभी जांच एजेंसियों को इस विभाग के भ्रष्टाचार की ओर मुंह उठाकर भी न देखने को कह दिया है। राज्य के परिवहन विभाग में चोरी छिपे नहीं डंके की चोट पर सरेआम भ्रष्टाचार किया जाता है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं जो इस भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह खोल सके। मप्र में परिवहन विभाग के चेकपेास्टों पर खुलेआम होने वाले भ्रष्टाचार इस सीमा तक पहुंच गया है कि चेकपोस्टों पर सरकारी आय से ढाई गुना राशि भ्रष्टाचार के रास्ते आ रही है। यह पैसा मंत्री से लेकर अफसरों तक में बंटा जाता है।

मप्र परिवहन विभाग का भाग्य अच्छा है कि उसे तीन महिने बाद आयुक्त के रुप में एसएस लाल नसीब हो गए हैं। लाल साहब ने इस कुर्सी तक पहुंचने के लिए कितने पापड़ बेले, यह तो वे ही जानते हैं। लेकिन आखिर लाल साहब इस कुर्सी पर क्यों आना चाहते थे तथा इस विभाग के उपायुक्त ने अपने प्रभाव का उपयोग करके तीन महिने तक इस कुर्सी को खाली क्यों रखा? यह रोचक किस्सा है। पहले इतना जान लीजिए कि आयुक्त की नियुक्ति के बाद भी इस महकमे में उपायुक्त की ही चल रही है। फिलहाल आयकर विभाग के निशाने परिवहन विभाग के कई अधिकारी हैं। कोई बड़ी बात नहीं है कि आईएएस अधिकारी अरविन्द जोशी की तरह अगले कुछ दिनों में परिवहन विभाग राज्य सरकार के लिए नया सिरदर्द बन जाए। सूत्रों के अनुसार विभाग के दो अफसरों में हर महिने आने वाली लगभग बीस करोड़ रुपए की कमाई के हिस्से को लेकर खींचतान शुरू हो गई है।

मप्र परिवहन विभाग के लगभग चालीस चेकपोस्ट हैं। पिछले साल के आंकड़ों के अनुसार परिवहन विभाग की कुल 831 करोड़ रुपए की आय में 91 करोड़ रुपए चेकपोस्टों से आए थे। विभाग के सूत्रों के अनुसार बीते वर्ष इन चेकपोस्टों से 200 करोड़ से अधिक की अवैध कमाई की गई थी। अकेल नयागांव बैरियर से प्रतिमाह तीन करोड़ रुपए ऊपर बसूले जा रहे हैं, जो कायदे से सरकारी खाते में जमा होना चाहिए। इनके अलावा शाहपुरफाटा, मुल्ताई, खबासा, सोयत एवं खिलचीपुर बैरियरों से भी जमकर चांदी काटी जा रही है। इन बैरियरों से गुजरने वाले ट्रक 9 टन के स्थान पर 12 से 14 टन तक माल भरकर धडल्ले से निकल रहे हैं। खास बात यह है कि परिवहन विभाग के आधे से ज्यादा सिपाही एवं हवलदारों की नियुक्ति इन पांच बैरियरों पर कर दी गई है।

सेंधवा पर कमाई बंद : मप्र में सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला बैरियर सेंधवा है जहां से राज्य सरकार को हर साल लगभग 25 करोड़ रुपए साल की आय होती है वहां पर्याप्त स्टाफ नहीं है, क्योंकि सेंधवा बैरियर पर इलेक्टॉनिक तौलकांटा लग जाने के कारण वहां अवैध कमाई पूरी तरह बंद है। परिवहन विभाग ने नयागांव व अन्य मलाईदार बैरियरों पर नियुक्त सिपाही हवलदारों को क्रम से सेंधवा पर छह माह में से एक माह नौकरी करने के निर्देश दिए हैं। विभाग के यह सिपाही एवं हवलदार हर छह महिने में मोटी रकम

देकर मलाईदार बैरियरों पर नियुक्ति कराते हैं। इन्हें मजबूरी में छह में से एक माह सेंधवा जाना पड़ता है जहां ऊपर की कमाई नहीं होती। लेकिन विभाग के अधिकारियों के पासव इसव बात कर जबाव नहीं है कि अन्य बैरियरों की तरह सेंधवा बैरियर जहां से सबसे ज्यादा राजस्व प्राप्त होता है, वहां सिपाही हवलदारों की सीधी नियुक्ति क्यों नहीं की जाती?

कमाई को विवाद शुरू : बताया जाता है कि परिवहन विभाग में बैरियरों से आने वाली अवैध कमाई में हिस्सें को लेकर दो अधिकारियों में विवाद शुरू हो गया है। परिवहन विभाग के तत्कालीन आयुक्त एनके त्रिपाठी के समय से ही विभाग के उपायुक्त ने अपनी चालाकी से बंटवारे में अपना हिस्सा बढ़ा लिया था। इस अधिकारी ने अपने खास संबंधों के आधार पर आयुक्त की कुर्सी को तीन महिने तक खाली रखवाने में भी सफलता पा ली थी, इस दौरान उन्होंने न केवल हर तीन महने में होने वाले रोटेशन को किया, बल्कि कुछ अधिकारियों की डीपीसी करके पदोन्नति भी कर डाली।

मंत्री व प्रमुखसचिव दूर : शायद किसी को विश्वारस न हो, लेकिन विभाग के सूत्रों का दावा है कि परिवहन विभाग की अवैध कमाई के बारे में अभी भी विभाग के प्रमुखसचिव राजन कटोच एवं मंत्री जगदीश देवडा को सही सही जानकारी नहीं है। मंत्री देवडा सरकार को चलाने वाली अदृश्य शक्तियों के इशारे पर काम करने को मजबूर हैं। विभाग में मंत्री से चांदी उनके निजी स्टाफ में पदस्थ अफसर काट रहे हैं। जबकि प्रमुख सचिव कटोच एकदम ईमानदार अफसर है। उनके सामने किसी की हिम्मत नहीं होती कि - चेकपोस्टों के बारे में चर्चा भी कर सकें।

लोकायुक्त में भी पहुंचता है हिस्सा : यह भी चौंकाने वाला तथ्य है कि मप्र में ईमानदार लोकायुक्त होने के बाद भी चेकपोस्टों से लोकायुक्त कार्यालय के कइ्र अधिकारियों ने महिना बांध रखा है। यहीं कारण है कि पिछले चार साल में लोकायुकत संगठन ने अभी तक मप्र के किसी चेकपोस्ट पर न तो छापा मारा है और न ही इस खुली लूट को लेकर कोई सख्त कार्रवाही की है। मजेदार बात यह है कि लगभग हर चेकपोस्ट पर चौबीस घंटे सड़क पर लूटपाट चलती रहती है, लेकिन लोकायुक्त संगठन सहित किसी एजेंसी की इस पर नजर क्यों नहीं पड़ती?

क्या हैं कटर : लगभग हर चेकपोस्ट पर कुछ कटर रखे जाते हैं जो अवैध कमाई को रखते हैं। यह एक तरह से प्राईवेट स्टाफ रहता है जो यदि किसी कारण से चेकपोस्ट पर छापा पड़ जाए तो यह बताया जा सके कि नगद रकम प्राइवेट आदमी के पास से बरामद हुई है। यह कटर कई वर्षों से बैरियरों पर जमे हुए हैं। अवैध कमाई के हिसाब की डायरी कटर ही मेंटेन करता है। कई जिलों में कलेक्टर, एसपी, सांसद, विधायक व स्थानीय नेताओं को भी हिस्सा पहुंचाने का काम कटर ही करते हैं।



तीन बसें जप्त, यात्री हुए पेरशान

परिवहन विभाग के विशेष जांच दल ने बुधवार को भोपाल में बड़ी कार्यवाही करते हुए इंदौर-भोपाल रोड़ पर तीन बसों को बिना परमिट के सवारियों को ढोते हुए पकड़ा। तीनों बसों को जप्त कर लिया
गया है। सूत्रों के अनुसार परिवहन आयुक्त एसएस लाल ने विशेष जांच दल को इंदौर भोपाल रोड़ पर अवैध बसों को पकडऩे के निर्देश दिए थे। दल के निरीक्षक संजय तिवारी ने फंदा के पास अचानक चैकिंग करके भोपाल से इंदौर जा रही तीन बसों को पकड़ा। इनमें एक बस पूर्व मंत्री प्रकाश सोनकर के रिश्तेदार की थी। बसें जप्त होने के कारण इनमें यात्रा कर रही सवारियों को परेशानी का सामना करना पड़ा। तीनों बसों को खजूरी सड़क थाने में रखा गया है।

रविवार, फ़रवरी 21, 2010

लोकायुक्त संगठन में यह कैसा जातिवाद !

दलित व आदिवासी नेताओं पर होती है कार्यवाही

प्रभावशाली बच जाते हैं


रवीन्द्र जैन

भोपाल। मध्यप्रदेश में पिछले छह वर्षों का लोकायुक्त संगठन का कार्यकाल विवादों से भरा रहा है। इस कार्यकाल में लोकायुक्त ने प्रदेश के जिन दो मंत्रियों व पूर्व मंत्रियों के खिलाफ चालान पेश किया उनमें एक आदिवासी तथा एक दलित वर्ग का है। जबकि राज्य के कई प्रभावशाली मंत्रियों के खिलाफ जितनी भी शिकायतें लोकायुक्त संगठन में की गईं उन्हें या तो जांच के नाम से लंबित रखा गया अथवा क्लीन चिट दे दी गई है।
लोकायुक्त संगठन ने सूचना के अधिकार के तहत 10 जुलाई 2007 को बताया था कि लोकायुक्त संगठन में प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित 13 मंत्रियों के खिलाफ शिकायतें मिली हैं। इनमें से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जुगलकिशोर बागरी एवं ओमप्रकाश धुर्वे के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत आपराधिक प्रकरण कायम किया गया है। जबकि अजय विश्रोई, बाबूलाल गौर, लक्ष्मीकांत शर्मा, जयंत मलैया, हिम्मत कोठारी, चौधरी चन्द्रभान सिंह, कमल पटेल, कैलाश विजयवर्गीय, अनूप मिश्रा, मोती कश्यप के खिलाफ शिकायतों की जांच की जा रही है। लोकायुक्त संगठन ने दलित गर्व के जुगल किशोर बागरी को रीवा में शिक्षाकर्मी चयन समिति के सदस्य के रूप में गलत नियुक्तियों का आरोप लगाकर उनके खिलाफ कोर्ट में चालान पेश कर दिया। चालान पेश होने के तत्काल बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बागीरी से त्यागपत्र मांग लिया।

ओमप्रकाश धुर्वे :  इसी प्रकार ओमप्रकाश धुर्वें जब प्रदेश के खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री थे तब राज्य सरकार ने उन्हें मप्र नागरिक आपूर्ति निगम का अध्यक्ष भी बना दिया था। निगम में अनाज के परिवहन की दरों को लेकर धुर्वे पर आरोप लगा था कि उन्होंने जानबूझकर परिवहन ठेके संबंधी फाइल अपने पास रखी, ताकि नए ठेकेदार के बजाय पुराना ठेकेदार ही परिवहन का काम कर सके। नए ठेकेदार ने परिवहन की दरें कम थीं। जिससे निगम को लाखों रुपए का नुक्सान हुआ। धुर्वे के मामले में जिस तरह लोकायुक्त संगठन ने रूचि ली वह चौंकाने वाली है। जिस लोकायुक्त संगठन में मंत्रियेां के खिलाफ वर्षों से जांच लंबित है, वहां ओमप्रकाश धुर्वें के मामले में प्रारंभिक जांच करने के बाद 4 मई 2006 को उनके खिलाफ प्रकरण कायम किया गया और 10 जनवरी 2007 को कोर्ट में उनके खिलाफ चालान पेश कर दिया गया।

धुर्वें से मांगे थे पांच लाख : ओमप्रकाश धुर्वें ने भोपाल के श्यामला हिल्स थाने में लिखित शिकायत में आरोप लगाया था कि तत्कालीन लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल के बेटे के पीए के नाम से एक अज्ञात व्यक्ति ने उन्हें फोन करके उक्त मामले को निबटाने के लिए पांच लाख रुपए मांगे थे। लेकिन उन्होंने यह राशि नहीं दी। यद्यपि पुलिस ने धुर्वें की शिकायत को जांच के बाद खारिज कर दिया था।

मुख्यमंत्री पर कार्यवाही नहीं :  लोकायुक्त संगठन में प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं उनकी पत्नी साधना सिंह के खिलाफ 15 नवम्बर 2007 को भोपाल जिला न्यायालय के आदेश पर प्रकरण कायम किया गया था। लगभग ढाई साल बाद भी अभी तक इस प्रकरण में मुख्यमंत्री अथवा उनकी पत्नी को बयान देने के लिए भी लोकायुक्त संगठन नहीं बुलाया गया है। बताया जाता है कि नए लोकायुक्त की नियुक्ति के बाद संगठन के एक अधिकारी ने मुख्यमंत्री निवास पहुंचकर मुख्यमंत्री एवं उनकी पत्नी के बयान दर्ज करने की औपचारिकता पूरी कर ली है तथा शीघ्र ही मुख्यमंत्री को इस मामले में क्लीन चिट देने की तैयारी है।

प्रहलाद को लिया साथ : मुख्यमंत्री ने रूठे अपने पुराने मित्र पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल को मुख्यमंत्री भाजपा में शामिल करके डम्पर प्रकरण को ठंडा कर लिया है। भाजपा में शामिल होने से पहले प्रहलाद पटेल ने ही सबसे पहले यह मामला उठाया था।

अहसान में मिली कुर्सी : लोकायुक्त संगठन में मुख्यमंत्री की जांच को ढाई साल तक दबाकर रखने वाले लोकायुक्त संगठन भोपाल के पुलिस अधीक्षक केके लोहानी को भोपाल का उप पुलिस महानिरीक्षक का पद देकर उपकृत किया गया है।

: कब से लंबित है जांच :

मंत्री- शिकायत दिनांक - एवं आरोप

1 - शिवराज सिंह चौहान 15 नवम्बर 07 डम्पर कांड
2 - शिवराज सिंह चौहान 29 अप्रेल 08 दवा खरीदी में घोटाला
     अजय विश्रोई








3 - बाबूलाल गौर 30 जून 07 खनिज लीज घोटाला
      लक्ष्मीकांत शर्मा








4 - लक्ष्मीकांत शर्मा 25 जुलाई 05 खनिज लीज घोटाला









5 - जयंत मलैया 31 मार्च 08 बिल्डर को 20 करोड़ का लाभ पहुंचाया
6 - जयंत मलैया 2 मई 08 श्रीराम बिल्डर को अवैध लाभ पहुंचाया
7 - जयंत मलैया 19 मार्च 07 पद का दुरूपयोग
8 - जयंत मलैया 9 जून 08 पद का दुरूपयोग








9 - अजय विश्रोई 23 जुलाई 07 नर्सिंग कॉलेज में पद का दुरूपयोग
     जयंत मलैया
10 - हिम्मत कोठारी 14 मई 07 मोरों के दाना पानी में घपला
11 - चौधरी चन्द्र भान सिंह 25 जनवरी 08 पद का दुरूपयोग कर सम्पत्ति एकत्रित करना
12 - कमल पटेल 26 नवम्बर 07 भू माफिया को 25 करोड़ का लाभ पहुंचाया








13 - कैलाश विजयवर्गीय 20 जून 07 ट्यूबवेल खनन में पद का दुरूपयोग
14 - कैलाश विजयवर्गीय 10 अप्रेल 07 बीओटी स्कीम में पद का दुरूपयोग







15 - अनूप मिश्रा 3 अप्रेल 07 जल संसाधन में ठेकेदारों को अनुचित लाभ
16 - मोती कश्यप 4 जून 05 मछली ठेकेदारों को पांच करोड़ का लाभ

इनके खिलाफ  हुआ चालन पेश

17 - जुगल किशोर बागरी 29 सितम्बर 1998 शिक्षाकर्मी की भर्ती में घपला
18 - ओम प्रकाश धुर्वे 4 मई 06 अनाज परिवहन में ठेकेदार को लाभ पहुंचाया