शनिवार, अप्रैल 17, 2010

156 (3) का काटा पानी नहीं मांगता
    मध्यप्रदेश की राजनीति में इन दिनों धारा 156 (3) का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। यह धारा विरोधियों को निपटाने के लिए एक अच्छा उपकरण सिद्ध हुई है। आम पाठक की विधिक निरक्षरता का फायदा लेकर इस धारा के सहारे तत्काल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को पटकनी दी जा सकती है। अभी हाल में कैलाश विजयवर्गीय और रमेश मेंदोला जिस राजनीतिक ऊहापोह में फँसे हैं, उसके पीछे भी यही धारा है और इसके पहले म.प्र. के पूर्व डीजीपी स्वराजपुरी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज ङ्क्षसह चौहान, पूर्व लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय ङ्क्षसह, नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी तक के विरुद्ध यह धारा काम में लाई गई है। इनमें से श्री पुरी के हाथों से डीजीपी का पद जाता रहा। मुख्यमंत्री के सामने भी एक बड़ा राजनीतिक संकट आ खड़ा हुआ। पूर्व लोकायुक्त श्री दयाल को भी पता लगा कि यह कड़वी गोली उन्हें भी निगलनी पड़ सकती है।
धारा 156 (3) है क्या?
    भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुसार कोई मजिस्ट्रेट, जिसे धारा 190 में इस हेतु स़ाक्त किया गया हो, 156 (3) के तहत जांच के आदेश दे सकता है। यह प्राइव्हेट कंप्लेंट की तरह है जिसके तहत मजिस्ट्रेट पुलिस को विवेचना के लिए निर्देशित करता है। धारा 156 (3) के तहत न तो मजिस्ट्रेट को कोई सुविस्तृत आदेश देना होता है, न उसे अपने आदेश के कारण बताने होते हैं। यह मजिस्ट्रेट के भीतर निहित दृष्टिकोण है कि वह ऐसा करता है या नहीं। इसके तहत वह मामले का संज्ञान भी नहीं लेता। इसलिए हुआ यह है कि धारा 156 (3) मैकेनिकल कार्यवाही हो गई है। यह सिर्फ शिकायत को पुलिस के पास प्रेषण-अग्रेषण करने के काम आ रही है।
    इसके विरुद्ध किसी तरह की राहत नहीं है। यहां होता यह है कि आदेश एक न्यायालय द्वारा किया जाता है। प्राय: शिकायत के दिन ही आदेश हो जाता है। संबंधित पक्ष को सुने बिना ही हो जाता है। उनकी पीठ पीछे ही। इकतरफा होने के बाद भी इससे आहत होने वाला पक्ष चूं नहीं कर पाता। न्यायालयीन आदेश होने से पूरा मीडिया इसकी ओर दौड़ पड़ता है और आहत पक्ष को भारी सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिष्ठा की क्षति उठानी पड़ती है।
    कई प्रकरणों में उच्च न्यायालय एवं सुप्रीम कोर्ट तक ने बार-बार यह अभिनिर्धारित किया है कि धारा 156 मजिस्ट्रेट को निर्देश की जो शक्ति देती है, वह शक्ति न्यायोचित तरह से इस्तेमाल होनी चाहिए, यांत्रिक तरीके से नहीं। लेकिन आज तक कभी भी 'न्यायोचितÓ और 'यांत्रिकÓ का फर्क एकदम स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं किया जा सका। लिहाजा 156 (3) तुरंत दान महाकल्याण की तरह चलती है। चूंकि भारत में अदालतों की सामाजिक प्रतिष्ठा काफी ऊंची है, वे 'संप्रभुÓ का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए उनका आदेश भले ही वह बिना गुण दोष पर विचार किए दिया गया हो और आहत पक्ष के पीठ पीछे दिया गया हो। अपनी तरह की एक 'प्रभाÓ अर्जित कर लेता है और सबको लगता है, कोई बड़ी चीज हो गई। अदालत ने आदेश दिया है तो कुछ सोच-समझ कर ही दिया होगा। अदालत ने आदेश दिया है तो जरूर कोई बात होगी। वैसे भी राजनेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध एक तरह का सिनिसिज्म तो चलता ही है। वे कितनी ही मेहनत करें, लेकिन सोच यही है कि मजा करते हैं।
    न इस प्रकरण में कोई गुण-दोष ण्वमऱ्ा हुआ है, न स्वराज पुरी के मामले में हुआ था, न दिग्विजय ङ्क्षसह या शिवराज ङ्क्षसह चौहान के, लेकिन चोट सभी को लगी। कम या ज्यादा पर विवाद हो सकता है। अदालतों के 'निर्णयÓ की वी.आई.पी. - विजिबिलिटी ज्यादा है। इससे तो बेहतर है कि अधिकारी और राजनेता अपने विरुद्ध एफ.आई.आर. प्रशासनिक तरीके से ही हो जाने दिया करें। कम से कम उनसे इतना बड़ा ड्रामा तो नहीं क्रिएट होगा। या फिर ठंडे मन से धारा 156, दंड प्रक्रिया संहिता में पंजाब जैसे राज्यों की तरह राज्य-संशोधन लाने पर विचार किया जाए ताकि इस धारा के माध्यम से सार्वजनिक छवियों के ये युद्ध रोके जा सकें। मीडिया को कोसने का अब बहुत ज्यादा अर्थ रह नहीं गया है क्योंकि उन्होंने तो सनसनी बेचने को अपना नैतिक अधिकार ही नहीं, पैतृक धंधा बना लिया है। लेकिन फस्र्ट इनफॉर्मेशन रिपोर्ट को फस्र्ट इंपल्स रिपोर्ट बनने से रोकना ही होगा। जो प्रकटत: निर्दोष-सा दिखने वाला आदेश 156 (3) के मामलों में दिया जाता है कि पुलिस जांच करे और दोषी पाए तो कार्रवाई करे, नहीं पाए तो रिपोर्ट करें, वह इतना मासूम भी नहीं होता और हँसी-हँसी में किसी की इज्जत की सरे-बाजार, बीच चौराहे इज्जत उतार ली जाती है। कैलाश विजयवर्गीय आज इसे भुगत रहे हैं, किन्तु कल इसे भुगतने वाले आप भी हो सकते हैं।

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