गुरुवार, मई 06, 2010

'पशु नहीं 'अधिकारी संवर्धन विभाग











जब सिस्टम ही बेकार तो कैसे बहेगी दूध की धार

महेंद्र विश्वकर्मा

भोपाल। प्रदेश का पशु चिकित्सा विभाग अपने मूल उद्देश्य पशु संवर्धन और सरंक्षण को छोड़कर अपने अधिकारियों के संवर्धन और संरक्षण की दिशा में ज्यादा सक्रिय है। वर्तमान हालातों को देखकर यह कहना भी गलत नहीं होगा कि विभाग अब बुरे दौर से गुजर रहा है। दरअसल विभाग पशु डाक्टरों की कमी से पहले ही जूझ रहा है और ऐसे में सैकड़ों डाक्टर और अधिकारी अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते शहरी मुख्यालयों में डेरा जमाकर बैठ गए हैं। करीब एक सैकड़ा डाक्टर अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर मौज कर रहे हैं तो कुछ जनपद पंचायतों में सीईओ बनकर जमकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। मामले में खास यह कि इन राजनैतिक संरक्षण प्राप्त लोगों को वापस बुलाने में विभाग के डायरेक्टर और पीएस भी हाथ खड़े कर रहे हैं।

पशा चिकित्सा विभाग में कुल मिलाकर 10 हजार 857 अधिकारी और कर्मचारियों के स्वीकृत पदों में से 1550 पद रिक्त पड़े हैं, इनमें 1 हजार 281 पद पशु चिकित्सक और सहायक पशु चिकित्सकों के ही खाली हैं। बावजूद इसके करीब 100 पशु चिकित्सक, सहायक चिकित्सक अपनी राजनैतिक पहुंच के चलते अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर चले गए हैं। इसके अलावा 400 से ज्यादा अधिकारी, कर्मचारी अपने निजी हितों के लिए भोपाल, ग्वालियर, जबलुपर, इंदौर, रीवा, उज्जैन सहित शहरी मुख्यालयों पर सालों से डेरा जमाए बैठे हैं। अपनी-अपनी ढपली, अपना राग की तर्ज पर चल रहे पशु विभाग में प्रतिवर्ष आने वाले बजट का कागजों में गोलमाल करना और विभागीय प्रतिवेदन में गलत आंकड़े देना आम बात हो गई है।

डॉक्टर नहीं साहब कहलाना लगता है अच्छा

पशु चिकत्सा विभाग में भले ही डाक्टरों की कमी हो लेकिन इन डाक्टरों को शायद साहब कहलाना अच्छा लगता है। इसीलिए विभाग के डा. कमलेश पांडे पिछले 8 सालों से जबलपुर संभाग में जनपद सीईओ के पद पर कार्यरत हैं तो डा. एसएमपी शर्मा रोजगार गारंटी में डिवीजनल मैनेजर के पद पर डटे हुए हैं। ग्वालियर जिला पंचायत में डा. बिजय दुबे सालों से पीओ के पद पर जमें बैठे हैं। डा. दुबे द्वारा की जा रही गड़बडिय़ों की शिकायत कई बार होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई है। डा. एचएस जैदी बक्फ बोर्ड में अटैच हैं, डा. मिनेश मेश्राम और डा. शैलेष साकल्ले अजीविका ग्रामीण विकास विभाग में लंबे अर्से से कार्य कर रहे हैं। इनको भाजपा के बड़े नेताओं का आर्शीवाद प्राप्त है। डा. एसके तिवारी, बिजय दुबे, बीबी सिंह चौहान, पीके मिश्रा ग्रामीण विकास विभाग में परियोजना अधिकारी की कुर्सी संभालकर डटे हैं।

और भी हैं मामले

इधर डीपीआईपी, मध्यप्रदेश वाटर रिस्ट्रचचिंग परियोजना, ग्रमीण विकास विभाग, कुक्कुट विकास निगम, जैव विविधता भोपाल सहित अन्य विभागों में सालों से डेपुटेशन पर जमें पशु चिकित्सा विभाग के अधिकारियों में डा. जगदीश बाविस्टाले, मनीष श्रीवास्तव, डीपी सिंह, अजय रामटेके, वायपी सिंह, आशुतोष सिंह, आरके तिवारी, गगन सक्सेना, अविनाश कुमार गुप्ता, एके शर्मा, एसडी खरे, आनंद त्रिपाठी, एलएस कश्यप, पीके सिन्हा, केके सक्सेना, धर्मेंद सिंह बघेल, अरविंद भार्गव, बृजेश पटेल, नरेंद्र गुप्ता, आशीष सोनी, श्रवण पचौरी, एमके अहिरवार, एनएस रघुवंशी, सीताराम दुबे, एके खरे, राजीव जैन, शैलेंद्र सिसौदिया, सुनील गुप्ता, रजनीश द्विवेदी, एसपी पांडे, महेंद्र सिंह धावे, आरएम स्वामी, एसके मित्तल, उमेश चौरसिया, एलिजा बैथ, पल्लबी चौबे, सीएम शुक्ला, प्रज्ञा चौरसिया, वकुल लाड़, दिपाली देशपांडे, शशांक जुमड़े, मनोज गौतम, उमेश शर्मा, अखिलेश मिश्रा, अतुल गुप्ता, जितेंद्र जाटव, एसके गुप्ता और डा. एसके अग्रवाल सहित दो दर्जन अन्य नाम ऐसे भी शामिल हैं जिनके बारे में विभाग जानकारी उपलब्ध नहीं करा रहा है।



कैसे बढ़ेगा पशुधन और दूध उत्पादन

मप्र में प्रति व्यक्ति दूध उपलब्धता करीब 100 ग्राम है, जबकि प्रति व्यक्ति दूध की आवश्यकता 300 ग्राम प्रतिदिन है। डाक्टरों की कमी से कृतिम गर्भाधान, पशुधन प्रसार, बीमारियों पर अंकुश लगाने, पशु स्वास्थ्य रक्षा, दूरस्थ गावों में पशु चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने का कार्य प्रभावित होता है। ग्रामीण स्तर पर कार्यरत डाक्टरों का कहना है कि पशुधन की संख्या ग्रामीण परिवेश में ज्यादा होती है और इसका संवर्धन वहीं रहकर किया जा सकता है, लेकिन विभाग ग्रामीण स्तर पर कार्यरत डाक्टरों को सुविधाओं के नाम पर साल भर में 25 हजार की दवाओं के अलावा कुछ नहीं देता है। जो दवाएं खरींदी जातीं हैं वे भी मानक स्तर पर खरी नहीं होती, डाक्टरों को अपनी वेतन से गांव-गांव जाकर पशुओं का इलाज कराना पड़ रहा है। डाक्टरों के प्रतिनियुक्ति पर चले जाने से विभागीय योजनाओं के क्रियान्वयन में परेशानी होना लाजमी है। उनका मानना है कि जब पशुधन का विकास नहीं होगा तो दूध उत्पादन कैसे बढ़ेगा।

आंकड़ों में ही बढ़ते हैं दुधारू पशु

पशु विभाग के प्रतिवेदन में 18वीं पशु संगणना में गौ-वंशीय पशुओं की संख्या में 11.6 प्रतिशत और भैस वंशीय पशुओं की संख्या में 20.5 प्रतिशत और बकरी वंशीय पशुओं में 10.7 प्रतिशत की वृद्वि हुई है। प्रदेश में गायों के हाल किसी से छुपे नहीं हैं। सतना बार्डर से होते हुए गायों की तस्करी की जाकर उन्हें छत्तीसगढ़ ले जाया जाता है। आभार एनजीओ की रिपोर्ट को आधार माने तो वर्ष 2009 में बुंदेलखंड और इंदौर सर्किल में करीब 1 हजार 666 गायें अकाल मौत का शिकार हुईं लेकिन पशु विभाग के पास इनका कोई रिकार्ड नहीं है। एनीमल हसबेंडरी ऑफ इंडिया के अनुसार प्रतिवर्ष पशु मृत्युदर औसतन 15 प्रतिशत है। ऐसे में यदि पशु विभाग गायों की संख्या बढऩे की बात करे तो आश्चर्य ही होगा। भैस वंशीय पशुओं की संख्या बढऩे की जो दलील विभाग दे रहा है वह हकीकत से परे है। दरअसल किसान हरियाणा, पंजाब और अन्य प्रांतो से बेहतर नस्ल की भैंसें खरीदकर लाता है। इसमें पशु विभाग का कोई योगदान नहीं है। बकरे और बकरियों की संख्या में वर्ष 2001 की तुलना में वर्ष 2009 में करीब 10 प्रतिशत की कमी आई है।

यह पशु समाप्त होने की कगार पर

पशु विभाग के आंकड़े माने तो प्रदेश में खच्चर, गधे, ऊंट और घोड़े, घोडिय़ां और टट्टू, सूअर, खरगोश विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनके अलावा कुक्कुट की संख्या में 37 प्रतिशत की कमी आई है। जबकि कुक्कुट के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं।

बजट ही नहीं कर पाते खर्च

विभाग को मिलने वाला बजट भी पूरा खर्च नहीं किया जाता। वर्ष 2007-08 में पशु विभाग को 20142.60 लाख बजट मिला लेकिन विभाग सिर्फ 15837.87 लाख ही खर्च कर सका। वर्ष 2008-09 में 22821 लाख बजट मिला और 19290.84 लाख ही खर्च हो सका।

वर्ष 2009-10 में भी यही हाल रहा और विभाग को आवंटित कुल बजट 23019.56 लाख में से 17016.49 लाख रुपए ही खर्च हो सके। इधर संचालनालय के कर्मचारी ही कह रहे हैं कि विभाग के वरिष्ठ अधिकारी और उनके चहेते एसी कमरों में बैठकर योजनाओं को कागजी अमलीजामा पहनाते रहते हैं। जमीनी स्तर पर न तो पशुओं के संवर्धन और न ही उनके संरक्षण की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। जितना बजट व्यय करना दिखाया जाता है उसका 20 प्रतिशत भी जमीनी स्तर पर काम नहीं होता।



सिस्टम में सुधार की जरूरत

डेपुटेशन वाले सभी अधिकारियों की सेवाएं वापस विभाग में तलब होनी चाहिए, क्योंकि इससे विभाग का कार्य सफर करता है। इस संबंध में प्रमुख सचिव के यहां से कलेक्टरों को एक पत्र जारी हुआ है। जिला और जनपद पंचायतों या रोजगार गारंटी योजना में अटैच लोग जोड़तोड़ कर वापस नहीं आना चाहते। ग्रामीण क्षेत्रों में जाने की बजाय विभागीय अधिकारियों, डाक्टरों का शहरी क्षेत्रों में रहना पसंद करने की बात सही है। जब तक डाक्टरों के लिए गांवों में पदस्थापना संबंधी कोई कड़ा नियम नहीं बनेगा तब विभाग में इसी तरह से कार्य होगा। विभाग द्वारा दिए गए आंकड़े एकदम सही हैं। बजट खर्च न हो पाने के बारे में कुछ नहीं सकता। विभाग को कम बजट मिलता है, इसलिए विभाग बुरे दौर से गुजर रहा है। निचले स्तर तक पश्ुाओं को आसानी से चिकित्सा सेवाएं मिल सकें इस दिशा में प्रयास किए जाएंगे। प्रदेश में दूध उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हो रहा है।

आरके रोकड़े
संचालक पशु चिकित्सा सेवाएं

डेपुटेशन वालों की वापसी नहीं

जो भी डॉक्टर अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर हैं उन्हें वापस लाने कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। विभाग के जो रिक्त पद हैं उन्हें भरने की कार्रवाई शुरू की जाएगी। विभाग आवंटित बजट पूरा खर्च नहीं कर पाता इसके पीछे कई तकनीकि कारण होते हैं। विभागीय आंकड़ों के गलत होने के संबंध में फिलहाल कुछ नहीं ेकह सकता। जो अधिकारी सीईओ के पदों पर कार्यरत हैं वह भी विभाग का काम ही करते हैं। पशु संवर्धन की दिशा में जमीनी स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं।

मनोज गोयल
प्रमुख सचिव
पशुपालन विभाग

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